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________________ तत्त्वदृष्टि २७१ अर्थ :- बाह्यदृष्टि मनुष्य सौंदर्य-तरंग के माध्यम से शरीर को पवित्र देखता है, जबकि तत्त्वदृष्टि मनुष्य उसे ही कुत्तों के खाने योग्य कृमि से भरा हुआ खाद्य देखता हैं । विवेचन :- शरीर ! नारी से भी बढ़कर प्रिय शरीर ! तुम भला, शरीर को किस दृष्टि से देखते हो ! बाह्यदृष्टि से शरीर, सौन्दर्य से सुशोभित, स्वच्छ और निर्मल प्रतीत होता है ! जब कि तत्त्वदृष्टि को यही शरीर कौए-कुत्तों के खाने योग्य कृमिओं से भरा भक्ष्य मात्र लगता है । कोई एक शरीर को देख रागी बनता है, जब कि दूसरा उसे देख विरागी/रागहीन बनता है ! एक शरीर की सेवा करता है, हिफाजत करता है, जब कि दूसरा उसके प्रति बिलकुल उदासीन बेपरवाह होता है ! एक शरीर के माध्यम से अपनी महत्ता समझता है, जबकि दूसरा स्वयं को उसके बंधनों में जकड़ा महत्वहीन/तुच्छ मानता है ! शारीरिक सौन्दर्य उसकी शक्ति, उसका लावण्य, और उसके आरोग्य को महत्व देने वाला बाह्यदृष्टि जीव...शरीर में सर्वत्र व्याप्त आत्मा के सौन्दर्य को देख नहीं सकता, ना ही आत्मा की अपार शक्ति को समझ पाता है ! साथ ही, प्रात्मा के अव्याबाध प्रारोग्य की उसे तनिक मात्र कल्पना नहीं होती । अरे, मुलायम, मोहक त्वचा के तले रही विभत्सता को वह देख नहीं सकता ! उस की दृष्टि तो सिर्फ बाह्यत्वचा पर ही केन्द्रित होती है । वह रूखी त्वचा को मूलायम बनाने में, आकर्षक बनाने में प्रयत्नशील रहता है ! गंदी चमडी को साफसुथरो बनाने के लिए आकाश-पाताल एक कर देता है ! बहिरात्मदशा में ऐसा ही होता है ! लेकिन अंतरात्मा.... तत्त्वदृष्टि पुरुष हमेशा शरीर के भीतर झांकता है और काँप उठता है । उसमें रहा मांस और रूधिर, मल और मूत्र.... यदि बाहर निकल कर रिसने लगे तो देखा न जाए ऐसा बीभत्स दृश्य खडा हो जाता है ! वह शरीर को रोगो अवस्था का विचार करता है ! वृद्धावस्था को कल्पना करता है....और अंत में निश्चेष्ट देह के कलेवर का दर्शन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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