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________________ २७२ जानसार करता है....! उस के अासपास इकट्ठे हुए कौए और कुत्तों को देखता है : 'वे शरीर को बोटो-बोटी नोच-खचोट रहे हैं !' अनायास वह आँखें मंद लेता है : 'जिस शरीर को नित्यप्रति मेवा-मिष्टान्न खिलापिलाकर पुष्ट किया, नियमित रुप से नहलाया-सजाया और मुशोभित किया, क्या आखिर वह कौमों को तीक्षण चोंचों का प्रहार सहने के लिए ? कुत्ते को दाढ तले कुचल जाने के लिए ? छि: छि: ! . वह शरीर को लकड़ी की निता पर लाचार, मजबूर, निष्प्राण हालत में पड़ा देखता है ! क्षणार्ध में वह अग्नि की ज्वाला का भाजन बन जाता है और लकड़ियों के साथ जलकर राख हो जाता है। सिर्फ घंटे, दो घंटे की अवधि में वर्षों पुराना सर्जन राख की देरी बनकर रह जाता है और वायु के तेज झोंके उसे पल, दो पल में इधर-उधर उडा ले जा नामशेष कर देते हैं । गरीर की इन अवस्थाओं का वास्तविक कल्पनाचित्र तत्त्वष्टि ही बना सकता है ! इससे शरीर का ममत्व टूटता जाता है ! उस का मन अविनाशो आत्मा के प्रति बरबस अाकर्षित होने लगता है। आत्मा से भेंट करने हेतु वह अपने भौतिक सुख-चैन को तिलांजलि दे देता है। गरीर को दुर्बल और कृश बना देता है ! शारारिक सौन्दर्य की उसे परवाह नहीं होती। शारीरिक सौन्दर्य के बलिदान से प्रात्मा के सौन्दर्य का प्रकटीकरण संभव हो तो वह उसे (शारीरिक सौन्दर्य को) हँसते. हंसते त्याग देता है । पापों के सहारे वह भूल कर भी शरीर को पुष्ट करना अथवा टिकाना नहीं चाहता । वह निष्प्राण वृत्ति धारण कर नगर टिकाता है...., वह भी ग्रात्मा के हितार्थ ! तत्त्वष्टि का यही वास्तविक शरीर दर्शन है। गजाश्वमूपभवनं विस्मयाय बहिर्दशः । तत्राश्वेभवनात् कोऽपि भेदस्तत्वदृशस्तु न ॥६॥१५॥ अर्थ - बाह्यदृष्टि को गजराज और उतुंग अश्वों से सज्ज राजभवन को देख विस्मय होता है, जबकि तत्वदृष्टि को उसी राजभवन में और हाथी और घोड़े के अस्तबल में विशेष कुछ नहीं लगता । विवेचन : ऐश्वर्य ! राजभवन का वैभव ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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