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________________ चतुर्विध सदनुष्ठान ] [ ११ महान् सद्भाव उल्लसित हो तब वह अनुष्ठान भक्तिअनुष्ठान कहा जाता है । महायोगी श्री आनंदघनजी ने प्रथम जिनेश्वर की स्तवना 'ऋषम जिनेश्वर प्रीतम माहरो _और न चाहुँ कंत.... इस प्रकार की है । उसे हम प्रीति अनुष्ठान में गिन सकते हैं । कारण कि उसमें योगीराज ने अपनी चेतना में पत्नीपन का आरोप किया है और परमात्मा में स्वामीपन की कल्पना की है । स्तवना में प्रीतिरस की प्रचुरता दृष्टिगोचर होती है । ३. वचनानुष्ठान : शास्त्रार्थप्रतिसंधानपूर्वा साधोः सर्वत्रोचितप्रवृत्तिः । - योगविशिका पंच महाव्रतधारी साधु इस अनुष्ठान की उपासना कर सकता है। प्रत्येक काल में और प्रत्येक क्षेत्र में साधु....मुनि.... श्रमण....शास्त्र की आज्ञाओं के मर्म को समझकर जो उचित प्रवृत्ति करे वह 'वचनानुष्ठान' कहलाता है। श्री 'षोडशक' में भी इसी प्रकार वचनानुष्ठान बतलाया है । 'वचनात्मिका प्रवृत्तिः सर्वत्रौचित्ययोगतो या तु । वचनानुष्ठानमिदं चारित्रवतो नियोगेन ॥ ४. असंगानुष्ठान : दीर्घकालपर्यन्त जिनवचन के लक्ष से अनुष्ठान करने वाले महात्मा के जीवन में ज्ञान-दर्शन-चारित्र की आराधना ऐसी आत्मसात् हो जाती है, कि पीछे से उस महात्मा को यह विचारना नहीं पड़ता कि 'यह क्रिया जिनवचनानुसार है या नहीं?' जिस प्रकार चंदन में सुवास एकी भूत होती है उसी प्रकार ज्ञानादि की उपासना उस महात्मा में एकरस बन जाती है, तब वह 1'असंगानुष्ठान' कहलाता है। यह अनुष्ठान 'जिनकल्पी' आदि विशिष्ट महापुरूषों के जीवन में हो सकता है। १ यत्त्वभ्यासातिशयात् सास्मीभूतमिव चेष्टयते सद्भिः । तदसङ्गानुष्ठानं भवति त्वेतत्तदावेधात् ॥ --- दशम षोड़शके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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