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विकल्पविषयोतीणः, स्वभावालम्बनः सदा ।
ज्ञानस्य परिपाको यः, स शमः परिकीतितः ॥१॥४१॥ अथ : विषय-विकल्प से रहित और निरन्तर शुद्ध स्वभावदशा का प्रालंबन
लेने वाली आत्मा का ज्ञानपरिणाम ही स्वभाव है । विवेचन : कोई विकल्प नहीं ! जैसे कि अशुभ विकल्प नहीं-'मैं धनवान बनु, मैं सर्वोच्च सत्ता का स्वामी बनु, सर्वशक्तिमान बन....।' ठीक उसी तरह 'मैं दान दु, तपस्या करूँ, मन्दिर-उपाश्रयों का निर्माण कराऊँ, आदि विकल्प भी नहीं । सिर्फ एक ध्येय ! वह है प्रात्मा के अनन्त, असीम सौन्दर्य में ही अहर्निश रत रहने का, आकंठ डबे रहने का ।।
ज्ञान का यही परिपाक है, आत्मपरिणति-स्वरुप ज्ञान का परिपाक ! यही आत्मा के विशुद्ध, अनन्त गुणों से युक्त स्वरूप का परिणाम है। यही शम है; मतलब समतायोग है । जीवात्मा शम-समता की भूमिका पर तभी पहुँच सकता है, जब वह अध्यात्म-योग, भावना-योग और ध्यान-योग की आराधना से पार उतरता है । अर्थात् वह उचित वृत्तिवाला व्रतधारी बन गया हो । उसने मैत्री, प्रमोद, करुणा और माध्यस्थ भाव से प्रोत-प्रोत बन तत्त्वचिन्तन किया हो, परिश्रमपूर्वक शास्त्र-परिशीलन किया हो और प्रतिदिन स्व-वृत्तियों का निरोध करते हुए अध्यात्म का निरन्तर अभ्यास कर, किसी एक प्रशस्त विषय में तन्मय हो गया हो । स्थीर दीपक की तरह निश्चल एवं उत्पात, व्यय और ध्रौव्यविषयक सूक्ष्म उपयोग वाला चित्त बना सका हो । तभी वह समतायोग की प्राप्ति का अधिकारी बन सकता है ।
समतायोगी शुभ विषय के प्रति इष्ट वुद्धि नहीं रखता, ना ही अशुभ विषय के प्रति अनिष्ट बुद्धि । बल्कि उसकी दृष्टि में तो शुभ और अशुभ दोनों विषय समान ही होते हैं। उसके मन में 'यह मुझे इष्ट है और यह अनिष्ट है, जैसा कोई विकल्प नहीं होता । ठीक उसी तरह 'यह पदार्थ मेरे लिये हितकारी है और वह पदार्थ अहितकारी', ऐसे विचार भी नहीं होते । वह तो सदा-सर्वदा अात्मा के परम शुद्ध स्वरुप में ही डूबा रहता है ।
समतायोगी/शमपरायण जीवात्मा 'आमषिधि' वगैरह का इस्तेमाल नहीं करता। केवलज्ञानावरण प्रादि कर्मों का क्षय करता है। वह
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