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________________ ४८८ ज्ञानसार मात्र पर असंख्य उपकार किये हैं । वे सिद्धसेन दिवाकर, जिनभद्र गणि, मल्लवादी, हरिभद्रसूरिजी आदि महान् आचार्यप्रवरों को पुनः पुनः वन्दना हो कि जिन्होंने सर्वनयाश्रित धर्मशासन की सुन्दर प्रभावना की साथ ही अपने रोम-रोम में उसे परिणत कर अद्भुत दृष्टि प्राप्त की है। 'भवभावना' ग्रंथ में ऐसे महान् आचार्यों का इसी दृष्टि से गुणानुवाद किया गया है : भदं बहुसुयाणं बहुजणसंदेहपुच्छणिज्जाणं । उज्जोइअ भुवणाणं झिणमि वि केवलमयंके ।। "केवलज्ञान रुपी चन्द्र के अस्त होते ही जिन्होंने समस्त भूमंडल को प्रकाशित किया है और बहुत लोगों के संदेह जिनको पूछे जा सकें, ऐसे बहुश्रुतों का भद्र हो ।' इस प्रकार बहुश्रुत सर्वनयज्ञ महापुरुषों के प्रति भक्ति-बहुमान प्रदर्शित किया गया है....। उन्हें बार-बार वन्दन किया है । उनका सर्वोपरि महत्व बताया गया है । निश्चये व्यवहारे च, त्यक्त्वा ज्ञाने च कर्मणि । एकपाक्षिक विश्लेषमारुढा: शुद्धभूमिकाम् ।।७।।२५५।। अमूढलक्ष्याः सर्वत्र पक्षपातविजिताः । जयन्ति परमानन्दमयाः सर्वनयाश्रयाः ।।८॥२५६।। अर्थ : निश्चयनय में, व्यवहारनय में, ज्ञाननय में और क्रियानय में, एक पक्ष में रहे भ्रांन्ति के स्थान को छोडकर शुद्ध भूमिका पर आरुढ कभी लक्ष्य नहीं चूकते, ऐसी सभी पक्षपातरहित परमानंद-स्वरुप सर्व नयों के आश्रयभूत (ज्ञानीजन) सदा जयवंत हैं । विवेचन : उनका निश्चय नय के संबंध में पक्षपात न हो और ना ही व्यवहार नय के सम्बन्ध में ! वह ज्ञान नय का कभी मिथ्या आग्रह न करे और ना ही क्रियानय के विषय में । निश्चयनय प्रायः तात्त्विक अर्थ का स्वीकार करता है, जबकि व्यवहारनय आम जनता में प्रचलित अर्थ का स्वीकार करता है । निश्चय नय हमेशा सर्वनयों को अभिमत अर्थ का अनुसरण करता है, जबकि व्यवहार नय किसी एक नय के अभिप्राय का अनुसरण करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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