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सर्वनयाश्रय
अतः सर्वनयों के आश्रित ज्ञानी पुरुष को इसमें से किसी एक नय के पचड़े में नहीं पड़ना चाहिए, ना ही किसो भ्रम-जाल में फंस जाए। वह भूलकर भी कभी निश्चय नय की मान्यता को अपनी गाँठ में बाँध न रखे और व्यवहार की मान्यता का हठाग्रही न बने। वह प्रत्येक नय के तर्क अवश्य श्रवण करे, लेकिन किसी एक नय के तर्क को आत्मसात् न करे ।
__ मात्र ज्ञान को प्राधान्य देने वाले ज्ञाननय की भूलभुलैया में वह अटक न पड़े और ना ही क्रिया की महत्ता स्वीकार करने वाले क्रियानय का कट्टर समर्थक बन, ज्ञाननय का तिरस्कार करे । दोनों नयों की ओर देखने की उसकी दृष्टि मध्यस्थदृष्टि हो और हर नय की मान्यता का मूल्यांकन वह उनकी अपेक्षा से ही करे ।
नयों के एकान्त आग्रह से परे रहे....अलिप्त हुए महाज्ञानी, सर्वोच्च आत्मा की विशुद्ध भूमिका पर आरुढ़ हो, अपने अन्तिम लक्ष्य की ओर निरन्तर एकाग्र हो अग्रसर होते हैं । उनके मन में किसी के प्रति पक्षपात नहीं और ना ही कोई दुराग्रह ।
मानों साक्षात् परमानन्द की मूर्ति । उनके पावन दर्शन करते ही परम आनन्द की उत्कट अनुभूति होती है । सर्वनयों के आश्रित ऐसे सर्वोत्कृष्ट परमानन्दो आत्मा सदा जयवंत हैं ।
जिन सर्वोत्कृष्ट परमानन्दी आत्माओं की हम सोत्साह जयजयकार करते हैं, उनके पदचिह्नों पर चलने के लिये कृतनिश्चयी बनना चाहिये। एकान्तवाद के लोह-बन्धनों को तोड कर अनेकान्तवाद के सार्वभौम स्वतंत्र प्रदेश में विचरण करने का सौभाग्य प्राप्त करना चाहिए ।
वास्तव में पूर्णानन्दी ही परमानन्दी है। पूर्णानन्दी बनने के लिये जितने सोपान चढने की आवश्यकता है, उतने ही सोपान चढ़ने पर परमानन्दी बन जाते हैं । अतः जीवन का एकमात्र लक्ष्य पूर्णानन्दी बनने का बना, दिशा-परिवर्तन कर अपने लक्ष्य की ओर गतिमान होना चाहिए । विचारों में सर्वनयदृष्टि का आविर्भाव हो जाए, बस ! परमानन्द की शीतल धारा हमारे आत्म-प्रदेश को प्लावित कर देगी और रोग-शोक की बंजर भूमि हरियाली से लद जाएगी ।
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