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सर्वनाश्रय
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करने के लिये शुष्क वाद विवाद वितंडवाद करना धर्मवाद नहीं कहलाता | निज की विद्वत्ता का मिथ्या प्रदर्शन करना और अन्यों को पराजित करने हेतु तत्त्वचर्चा करना धर्मवाद नहीं है ।
ऐसे महात्मा, जो सर्व नयों के ज्ञाता हैं, भूलकर भी कभी वितंडावाद करते ही नहीं । वे हमेशा मुमुक्षु ऐसे जिज्ञासु की शंका कुशंकाओं का निवारण करते हैं । इसी में कल्याण है और परम शान्ति का अनुभव होता है ।
जिन भट्टसूरिजी ने जिज्ञासु हरिभद्र पुरोहित के साथ धर्मवाद किया था, फलतः हरिभद्र पुरोहित हरिभद्र सूरि बन गये और जैन शासन को एक महान् विद्वान्, समर्थ आचार्य की प्राप्ति हुई.... । लेकिन वे ही हरिभद्रसूरिजी बौद्धों के साथ धर्मचर्चा में उतरे, तब ? उनमें कितना रोष और संताप व्याप्त था ? फलतः याकिनी महत्तरा को गुरुदेव के पास जाना पड़ा और गुरुदेव ने उन्हें वाद-विवाद से रोक दिया ।
धर्मवाद के संवाद में से ही कल्याण का पुनीत प्रवाह प्रवाहित होता है । अतः सर्व नयों का ज्ञान प्राप्त कर मध्यस्थ बन धर्मवाद में सदैव प्रवृत्त रहना चाहिए ।
प्रकाशितं जिनानां यैर्मतं सर्वनयाश्रितम् ।
चित्तं परिणतं चेदं येषां तेभ्यो नमोनमः || ६ || २५४ ॥
अर्थ : जिन महापुरुषों ने सर्व नयों के माध्यम से सामान्य जनों के लिए आश्रित प्रवचन प्रकाशित किया है और जिनके हृदय में परिणत हुआ हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार हो ।
विवेचन : पूज्य उपाध्यायजी महाराज उन महापुरुषों पर मुग्ध हो जाते हैं, निछावर होते हैं, जिन्होंने सामान्य जनों के लिये सर्व नयों से आश्रित ऐसा अद्वितीय प्रवचन प्रकाशित किया है, साथ ही जिन पुण्य पुरुषों ने उसे माना है, बड़े प्यार से उसे ( प्रवचन ) हृदय में धारण किया है, और मन ही मन प्यार किया है। ऐसे महात्माओं को बार-बार वन्दन करते हुए पूज्यश्री गद्गद् हो उठते हैं ।
त्रिभुवनपति श्रमण भगवान महावीर को बार-बार नमस्कार हो कि जिन्होंने ऐसा सर्वनयाश्रित प्रवचन प्रकाशित- अभिव्यक्त कर जीव
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