SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 321
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कर्मविपाक-चिन्तन २९७ घटना के पीछे रहे कर्मतत्त्व की गहरी और वास्तविक जानकारी हासिल करो । यही जानकारी तुम्हें कभी दीन नहीं बनने देगी, ना ही विस्मित होने देगी । फलतः, दीनता और विस्मय नष्ट होते ही तुम अन्तरंग आत्मसमृद्धि की दिशा में गतिशील बनोगे । येषां भभंगमात्रेण, भज्यन्ते पर्वता अपि ! तैरहो कर्मवैषम्ये भूपभिक्षाऽपि नाऽऽप्यते ॥२॥१६२।। अर्थ : जिनकी भ्र कुटि तनने मात्र से भी बड़े बड़े पर्वत छिभिन्न हो जाते हैं, ऐसे महारथी राजा भी कर्म-विषमता पैदा होने पर भिक्षा भी नहीं पाते, यह आश्चर्य है ! विवेचन : कर्मों को यह न जाने कैसी विषमता है ? ___बड़े से बड़े राजा भिखारी बन जाते हैं ! भीख मांगने पर भी अनाज का दाना नहीं मिलता ! जिन की भृकुटि तनते ही हिमाद्रि की पर्वतमालाएँ कम्पायमान हो जाएँ... जिनके आक्रमण मात्र से गिरि-कन्दराए मिट्टी में मिल जाएँ....शत्रुओं के चक्के छुट जाएं....धरती का कोना कोना विनाश का प्रतीक बन जाएँ....लेकिन कों की भयानकता प्रकट हात हा वही राजा, महाराजा और सम्राट.... पलभर में रंक, दीन, गरीब पनकर दाने-दाने के मुंहताज हो जाते हैं । ऐसे अनेकानेक राजा-महाराजों के पतन की करूण कहानियाँ इतिहास के झरोखे से झांकने में तुम्हें अवश्य दृष्टिगोचर होगी। उन के प्रध:पतन की कहानियाँ से इतिहास के पन्ने भरे पडे हैं । संभव है यह सब पढ़कर तुम्हारा मन सहानुभूति से द्रवित हो उठा होगा अथवा 'वे इस के काबिल थे,' सोचकर तुम्हें संतोष हुआ होगा ! लेकिन किसी का अकस्मात इस तरह का पतन कैसे संभव है ? दीर्घावधि से विश्व के दरबारों में जिनका नाम गूंजारित था, उनका यों यकायक पतन क्यों कर ? इसकी सच्चाई को गहराई में जाने का, सत्य-शोधन करने का कभी क्या तुमने प्रयत्न किया है ? __ क्या भूल गये रूस के लोहपुरुष क्रुश्चेव को ? अमरिकी तानाशाह और बलाढ़ य हस्तियाँ भी उससे थर्राती थी ! उसके शाब्दिक अग्निबाणों से विश्व का हर नागरिक दग्ध था ! जिसने स्टेलीन, लेनीन और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy