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हुए भी उसका उपभोग न कर सके । इष्ट भोजन सामने होते हुए खा न सके ! तपश्चर्या करने की भावना न हो !
मुनि किसी को उँचे कुल में और किसी को नीच कुल में जन्मा देख, यह सोचते हुए समाधान करता है कि, 'यह सब गोत्र-कर्म का विपाक है ।' मुनि जब किसी को निरोगी, पूर्ण स्वस्थ देखता है और किसी को रुग्ण... बीमार.... सड़ता.... गलता हुआ देखता है तब यह समाधान करता है कि यह सबलता - दुर्बलता वेदनीयकर्म का विपाक है ! मुनि किसी को मनुष्य रूप में, किसी को पशु रुप में तो किसी को देव रूप में और किसी को नरक रुप में जानता है तब यों सोच कर समाधान करता है कि, 'यह उसके प्रायुष्यकर्म और गतिनाम कर्म का विपाक है । मुनि जब किसी को बाल्यावस्था में मरते हुए देखता है, किसी को युवावस्था में तो किसी को वृद्धावस्था में, तब उसे किसी/ प्रकार का दुःख, शोक अथवा आश्चर्य नहीं होता । वह उसे सिर्फ आयुष्यकर्म का परिणाम समझता है ।
ज्ञानसार
मुनि किसी को सौभाग्यशाली, किसी को दुर्भागी, किसी को सफल, किसी को असफल, किसी को मृदुभाषी, किसी को कर्कशभाषी, किसी को खूबसूरत, किसी को बदसूरत, किसी को हंसगति वाला तो किसी को ॐ गति वाला देखता है, तब उसे इससे कोई हर्ष-विषाद नहीं होता ! बल्की वह इसे नामकर्म का विपाक समझता है ।
जब मुनि के अपने जीवन में भी ऐसी विषमताओं का प्रादुर्भाव होता है तब 'यह कैसे हुआ ? यह किस तरह संभव है ?' श्रादि प्रश्न उपस्थित कर उद्विग्न नहीं होते । क्योंकि वे 'कर्म विपाक के विज्ञान' से भली-भाँति परिचित होते हैं । उसके पीछे रहे 'कर्म-बंधन-विज्ञान' के भी वे जानकार होते हैं । अतः वे दीनता नहीं करते, और सुख-दु:ख के द्वंद्व उन्हें स्पर्श तक नहीं कर पाते । उक्त महावैज्ञानिक मुनि के अन्तर में हर्ष - शोक की लहरियाँ / भँवर पैदा नहीं हो पाते । वे स्वयं को सुखी अथवा दुःखी नहीं मानते । कर्मोदय भले शुभ हो या अशुभ, वे उसमें खो कर किसी प्रकार की सुख-दुःख की कल्पना नहीं करते ।
दीनता - हीनता और हर्षोन्माद के चक्रवात में से बचने का यह एक वैज्ञानिक मार्ग है; 'जगत् को कर्माधीन समझो । संसार की प्रत्येक
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