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शाली कैसे हो सकते हैं ? हाँ, वह बात संभव है कि तुम सद्धमं से लोक प्रशंसा पाना नहीं चाहते, फिर भी तुम्हारे शुभ कर्मों के कारण लोग वाह-वाह किये बिना नहीं प्रघाते, उस में तुम्हारा कोई अपराध नहीं । तदुपरांत भी, तुम्हें यह आदर्श तो बनाये रखना है कि 'यह प्रशंसा-स्तुति सिर्फ पुण्यजन्य है ।' इस से खुशी नहीं होना है । क्योंकि पुण्य का प्रभाव खत्म होते ही प्रशंसक निंदक बन जायेंगे। यदि प्रशंसा से फुल जाओगे तो निंदा से दुःखी होना पडगा ।
तुम सद्धर्म की मन-वचन काया से श्राराधना करते हो, तुम्हें लोकप्रशसा नहीं मिलती, मान-सन्मान नहीं मिलता, इससे निराश होने की प्रावश्यकता नहीं । हमेशा याद रखो सद्धमं का फल लोक-प्रशसा नहीं है । भूल कर भी कभी अन्य प्राणियों से अपने सद्धर्म की कदर करवाने की भावना नहीं रखना । क्योंकि सद्धर्म की प्राराधना से तुम्हें अपना ग्रात्मा को निःस्पृह महात्मा बनाना है । कर्म - बंधनों को छिन्न-भिन्न करता है । आत्मा को परमात्मा बनाना है । यदि लोक प्रशंसा के व्यामोह में जरा भी फँस गये तो तुम्हारे भव्य और उदात्त आदर्शों को कब्र खुदते देर नहीं लगेगी । अतः सर्द व सावधान रह सद्धर्म की आराधना करनी चाहिए ।
लोकसंज्ञामज्ञानद्यामनुस्त्रोतोऽनुगा न के I
प्रतिस्त्रोतोऽनुगस्त्वेको राजहंसो महामुनिः ||३|| १७६ ।।
शनल र
अर्थ :- लोकसंज्ञा रूपी महानदी में लोक-प्रवाह का अनुसरण करनेवाले भला कौन नहीं है? प्रवाह विरुद्ध चलने वाला राजहंस जैसे मात्र मुनीश्वर
हो हैं ।
विवेचन : काई एक बडी नदी है ।
गंगा, यमुना, गोदावरी, नर्मदा,
ब्रह्मपुत्रा से भी बडी !
जिस दिशा में नदी बहती है उसके प्रवाह में अनुकूल दिशा में सभी प्रवाहित होते हैं, प्रयास करते हैं ! लेकिन प्रवाहविरुद्ध प्रतिकूल दिशा में कोई प्रवास नहीं कर सकता । उफनते, विद्यत्वेग से आगे बढ़ते प्रवाह की प्रतिकूल दिशा में तरना बच्चों का खेल नहीं हैं ! कोई बड़ी बात परिग्रह इकट्ठा
लोक-संज्ञा रूपी नदी के प्रवाह में बहना, प्रवास करना - नहीं हैं | खाना-पीना, ओढ़ना-पहनना, विकथाएँ करना,
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