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लोकसंज्ञा-त्याग
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करना, भोगोपभोग का आनन्द लूटना, गगनचुम्बी भवननिर्माण करना और कीमती वाहन रखना, पुत्र-पत्नी और परिवार में खोये रहना, तनको साफ-सुथरा रखना, सजाना-सँवारना, वस्त्राभूषण धारण करना..... आदि समस्त क्रिया सहज स्वभाविक है । इस में कोई विशेषता नहीं और ना ही आश्चर्य करने जैसी बात है ।
अज्ञान, मोह श्रीर द्वेष में फसी हुई दुनिया के बुद्धिमान कहलाते विद्वान् लोग, लौकिक आदर्श और परम्पराएँ साथ ही विवेकहीन रीति रिवाज के बोझ को ढोते फिरते हैं ! मुनि को चाहिए कि वह इन आदर्श, पद्धति, परम्परा और रीति-रिवाज के चंगुल में भूलकर भी न फँसे !
लोकप्रवाह द्वारा मान्य कुछ मत निम्नानुसार हैं :
( १ श्रमण- समाज को समाज सेवा करनी चाहिए : अस्पताल, शाला महाविद्यालय, और धर्मशालाएँ निर्माण करानी चाहिए ।
(२) श्रमण को अस्वच्छ, फटे-पुराने वस्त्र धारण नहीं करना चाहिए बल्कि स्वच्छ और अच्छे वस्त्र परिधान करने चाहिए !
( ३ ) धर्म के प्रचार और प्रसार हेतु श्रमणों को कार, वायु-यान, रेल्वे का प्रवास और समुद्र - प्रवास करना चाहिए !
(४) श्रमरणगरण लोगों को अधिकाधिक प्रतिज्ञाएँ न दें ! (५) श्रमण अधिक दीक्षाएँ न दे !
(६) श्रमण बाल-दीक्षा न दे !
यह आधुनिक लोकमत है ! जिस की श्रात्मा जागृत न हो और ज्ञानदृष्टि खुलो नहीं हो, प्रायः ऐसे साधु लोक-प्रवाह के भोग बने बिना नहीं रहते ....। इस प्रकार के लोकप्रवाह शिष्ट और सदाचारी समाज रचना का अंग-भंग करने हेतु प्रचलित है । सुशिक्षा और समाजसुधार के नाम पर कई गंदी, बीभत्स और समाज को पतनोन्मुखी बनाने वाली योजनाएँ कार्यान्वित होती नजर आ रही हैं ।
१. ' आबादी बढ रहा है, अनाज नहीं मिलेगा, अत: संतति-नियमन करो ! अधिक बालक न हो, इसलिए ऑपरेशन करवाओ । निरोध का उपयोग करो !' आदि विचारों का सरेआम राष्ट्रव्यापी प्रचार कर
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