________________
अनुभव
३६३
मधुर सुरभि सूघ न सकें, जिह्वा उसका स्वाद न ले सकें और चमडी उसका स्पर्श न कर सकें !
शास्त्रों की युक्ति-प्रयुक्तियाँ और तर्क भले ही आत्मा का अस्तित्व सिद्ध करें, बौद्धिक कुशाग्रता भले ही नास्तिक-हृदय में आत्मा की सिद्धि प्रस्थापित कर दें, लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि प्रात्मा को जानना यह शास्त्र के बस की बात नहीं है। जानते हो, शास्त्र और बुद्धि का प्राधार लेकर राजा प्रदेशी की सेवा में उपस्थित महानुभाव कैसे निस्तेज. निष्प्राण बन गये थे ? लाख प्रयत्न के बावजद भी वे शास्त्र और बुद्धि के बल पर राजा प्रदेशी को आत्मा की वास्तविक पहचान नहीं करा सकें। और फलस्वरुप इंद्रियों के माध्यम से प्रात्मा को पहचान ने के हठाग्रही राजा प्रदेशी ने कुपित हो, न जाने कैसा जुल्म गुजारा था ? लेकिन जब केशी गणधर से उसकी भेंट हुई, इंद्रियों को अगोचर, इन्द्रियों से अगम्य आत्मा का दर्शन कराया कि राजा प्रदेशी, राजर्षि प्रदेशी में परिवर्तित हो गया !
आत्मा को समझा विशुद्ध अनुभव से । आत्मा का अनुभव किया इंद्रियों के उत्माद से मुक्त हो कर । आत्मा को पा लिया शास्त्र और तर्क से ऊपर उठ कर !
जिस ने आत्मा को जानने-समझने और पाने का मन ही मन दृढ संकल्प किया है उसे इन्द्रियों के कर्णभेदी कोलाहल को शांत-प्रशांत करना चाहिए। किया भी, इन्द्रिय को हस्तक्षेप नहीं करने देना चाहिए ! शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श की दुनिया से मन को दूर-सुदूर अनजाने प्रदेश में ले जाना चाहिए। तभी विशुद्ध अनुभव की भूमिका का सर्जन होता है। ___ साथ ही, आत्मा के अतिरिक्त अन्य किसी को जानने समझने की कामना नहीं होनी चाहिए। प्रात्मा के अलावा दूसरे को पहचान ने की जिज्ञासा नहीं होनी चाहिए , आत्म-प्राप्ति सिवाय अन्य कोई प्राप्ति की तमन्ना नहीं चाहिए , जब तक आत्मानुभव का पावन क्षण प्रकट होना दुर्लभ है।
आत्मानुभव करने हेतु इस प्रकार का जीवन-परिवर्तन किये बिना
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org