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________________ १५० ज्ञानसार के गुलाम बन गये ! कालान्तर से उन्हें दुबारा आत्मस्वभाव के ऐश्वर्य का भान हुआ और नि:स्पहता की दीप-ज्योति पूनः उनमें प्रज्वलित हो उठी ! दिव्यशक्ति का अपने आप संचार हुआ ! फलस्वरुप उन्होंने आनन-फानन में स्पृहा की बेड़ियां तोड़ दो और पामर से महान् बन गये, निर्बल से सबल बन गये ! परस्पृहा महादु खं, निःस्पृहत्वं महासुखम् । एतदुक्त समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः ॥ पुद्गल की स्पृहा करना संसार का महादुःख है, जब कि निःस्पृहता में सुख की अक्षय-निधि छिपी हुई है ! श्रमण जितना नि:स्पृह होगा उतना ही सुखी होगा । संयोजितकरैः के के प्रार्थ्यन्ते न स्पृहावहै । अमात्रज्ञानपात्रस्य निःस्पृहस्य तृणं जगत् ॥ ॥२॥१०॥ अर्थ :- जो करबद्ध हैं, नतमस्तक हैं, ऐसे मनुष्य भला, किस किस की प्रार्थना __ नहीं करते ? जबकि अपरिमित ज्ञान के पात्र ऐसे नि:स्पृह मुनिवर के लिए तो समस्त विश्व तृण-तुल्य है ! विवेचन :- स्पृहा के साथ दीनता की सगाई है ! जहां किसी पुदगलजन्य स्पृहा मन में जगी नहीं कि दीनता ने उसके पोछे-पीछे दबे पाँव प्रवेश किया नहीं ! स्पृहा और दोनता, अनंत शक्तिशाली आत्मा की तेजस्विता हर लेती है और उसे भवोभव की सूनी-निर्जन सड़कों पर भटकते भोगोपभोग का भिखारी बना देती है ! __ महापराक्रमी रावण के मन में परस्त्री की स्पृहा अंकुरित हो गई थी ! सीता के पास जाकर क्या कम दीनता की थी उसने ? करबद्ध हो, दीन-वारणी में गिड़गिड़ाते हुए सीता से भोग की भीख मांगी थी । दीर्घकाल तक सीता की स्पृहा में वह छटपटाता रहा, तड़फता रहा ! और अंत में अपने परिवार, पुत्र, निष्ठावान् साथी और राजसिंहासन से हाथ धो बैठा ! अपने हाथों ही अपना सत्यानाश कर दिया ! स्पृहा का यह मूल स्वभाव है : जोव के पास दीनता का प्रदर्शन कराना ! गिड़गिड़ाने के लिए जीव को विवश करना और प्रार्थनायाचना करवाना ! अतः मुनि को चाहिये कि वह भूलकर भी कभी पर पदार्थ की स्पृहा के पीछे दीवाना न हो जाए । और यह तथ्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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