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ज्ञान
५३ ही विचार रहेगा : 'उस युवती को कैसे प्राप्त किया जाय ? और उसकी हर प्रवृत्ति उसे पाने की रहेगी। यह वासना पैदा किसने की? उसके पीछे कौन-सी शक्ति काम कर रही है ? यह वासना युवती के मनोहर दर्शन से पैदा हुई । मतलब, युवती-विषयक ज्ञान के कारण ही वासना उसके मन में जगी ।
यही शाश्वत् सत्य है, जो यहाँ भी लागु पडता है । प्रात्मस्वरूप का ज्ञान होते ही वह ज्ञान जीवात्मा को अविरत रूप से प्रात्मस्वरूप के विचारों में ही मग्न कर देता है और उसकी प्राप्ति के लिये आवश्यक पुरुषार्थ/प्रवृत्तियाँ करने के लिये उत्तेजित करता रहता है । और, ऐसे ही ज्ञान की हमें अावश्यकता है । हमें ऐसे ज्ञान की कतइ गरज नहीं, जिससे जैसे-जैसे ग्रंथाभ्यास बढ़ता जाए, अध्ययन की प्रवृत्ति बढ़ती जाए, वैसे-वैसे पुद्गल-विषयक आसक्ति/चाह की गति में भी बढोतरी होती जाए। इससे तो रागवृद्धि और द्वेषवृद्धि के अलावा और कुछ नहीं होगा । फलत: मन में असत् ऐसी रस-ऋद्धि और शाता की लोलुपता निर्वाध गति से बढती जाएगी ।
भगवान सुधर्मास्वामी ने जंबुकुमार को प्रतिबोध/ज्ञान-दान दिया और वे संसार-सागर से तिर गये/पार लग गये । खंध कसूरिजी ने अपने पाँच सौ शिष्यों को ज्ञान (प्रतिबोध) दिया । पाँच सौ शिष्यों में इसी ज्ञान के बल से आत्मस्वरूप प्राप्ति की वासना जगी । फलस्वरूप, इसे हासिल करने के लिये उन्होंने कोल्हू में पीस जाना बेहतर समभा । अरे, वासना के खातिर मनुष्य क्या-क्या नहीं करता ? एक बार वासना पैदा होनी चाहिये । फिर कोल्हू में पीस जाना दुष्कर नहीं है, ना ही अग्नि में जल जाना कठिन है । उसके लिए पर्वत से छलांग लगाना, भूख और प्यास से अस्थि पिंजर बनना, बोटी-बोटी कटवाना....आदि बातें असाध्य नहीं बल्कि साध्य हैं । हाँ, ऐसी तीव्र वासना जीवात्मा में पैदा होनी चाहिये । वासना को तीव्र बनाने वाली, बढ़ावा देने वाली, उसे उत्तेजित करने वाली एक ही शक्ति है और वह है ज्ञान हमें ऐसे ही ज्ञान की जरूरत है । यही ज्ञान उपादेय है । इसके अलावा जो ज्ञान होगा, वह तो सिर्फ छलावा है। महात्मा पतंजलि ने यही कहा है और यह बात सर्वसम्मत है।
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