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________________ ज्ञानसार चाहिए । मतलब, हमारे द्वारा किया गया विवेचन शास्त्रपद्धति के अनुसार होना चाहिए। आगमविरोधी भावना से युक्त नहीं होना चाहिए । - जिस तरह तत्त्वचिन्तन की गति बढ़ती जाएगी, उसी तरह कषायों का उन्माद शान्त होता जाएगा । संज्ञाओं की बुरी आदतें कम होती जायेंगी और गारवों [ रस-ऋद्धि-शाना] का उन्माद मन्द होता जाएगा। एक बार गुरुदेव ने अपने शिष्य 'माषतुष मुनि' को निर्माणसाधक ऐसा एक पद दिया : ‘मा रुष... मा तुष ।' अर्थात 'न कभी द्वेप करो, न कभी राग करो' । लगातार बारह वर्ष तक महामुनि ने इसी पद का सतत चिन्तन-मनन किया, उसका सूक्ष्मता से परिशीलन किया । फल यह हुआ कि बारह वर्ष की अवधि के बाद वे मोक्ष-पद के अधिकारी बने । सिर्फ एक ही पद के चिन्तन-मनन से उन्हें सिद्धि मिली : 'मा रुष, मा तुष' । क्योंकि उनके लिए यह पद एक प्रकार का उत्कृष्ट ज्ञान बन गया और उन्हें मुक्ति-पद की प्राप्ति हुई । . तत्त्वचिन्तन में अपने आप को विलीन कर देना, लयलीन कर देना ही उच्च कोटि का ज्ञान है ।। स्वभावलाभसंस्कारकारणं ज्ञानमिष्यते । ध्यान्ध्यमात्रमतस्त्वन्यत्, तथा चोक्तं महात्मना ।।३॥३५॥ अर्थ ऐसे ज्ञान की इच्छा करते हैं, जो आत्म-स्वरूप की प्राप्ति का कारण "हो । इससे अधिक सीखना/अभ्यास करना, बुद्धि का अन्धापन है । इसी प्रकार महात्मा पतंजलि ने भी कहा है ।। विवेचन : ज्ञान वही है, जो आत्मस्वरूप की प्राप्ति हेतु जीवात्मा को निरन्तर बढावा देता रहता है | आत्मस्वरूप को जानने की मन में वासना जगाता है । वासना वह है, जो किसी विषय को गहराई से जानने की प्रवृत्ति मन में पैदा करती है । उसे पाने के लिये अथक परिश्रम करने की प्रेरणा देती है, उसके पीछे हाथ धोकर पड़ने के लिये उकसाती रहती है। जैसे, यदि किसी को किसी युवती के प्रति वासना जगी, मसलन वह उसे वशीभूत करने के लिये सतत कार्यशील रहेगा । उसके मन में सोते-जागते, उठते-बैठते, घूमते-घामते केवल एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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