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ज्ञानसार
बावारच प्रतिवादाश्च वदन्तोऽनिश्चितांस्तथा ।
तस्वान्तं नैव गच्छन्ति, तिलपीलकवद् गतौ ॥४॥४६।। अर्थ : निरर्थक वाद (पूर्वपक्ष) और प्रतिबाद (उत्तरपक्ष) में फंसे जीव
कोल्हू के बल की तरह तत्त्व का पार पाने में पूर्णतया असमर्थ
होते हैं। विवेचन : जिस शास्त्र-ज्ञान से अन्तर्शत्रुओं पर विजय पाना है, बाह्य पार्थिव जगत से अन्तःचेतना की ओर गतिमान होना है, अरे जीव ! उसी शास्त्र के सहारे तू निरर्थक वाद-विवाद में उलझकर रह गया ? जो इष्ट है, उसे छोड़ दिया और जो अनिष्ट है, उसके पीछे लग गया ? राग और द्वेष का शरणागत हो गया और अपने आप को, अपने प्रात्मस्वरूप को भूल-भालकर संसार के यश-अपयश में आकंठ डूब गया !
यह सब करने के पहले भले आदमी, इतना तो सोच कि तेरे पास जो शास्त्र हैं, ग्रंथ हैं और ज्ञान की अपूर्व निधि है, उसे अच्छी तरह जान पाया है क्या ? उसका सही अर्थ-निर्णय कर सका है क्या ? आज इस जगत में केवलज्ञानी परम पुरुषों का वास नहीं है, ना ही मनःपर्यवज्ञानी अथवा अवधिज्ञान के अधिकारी महात्मा यहाँ विद्यमान हैं । तब भला, अनंतज्ञान के स्वामी परम मनीषियों द्वारा रचित और प्रतिपादित शास्त्रों को तू अल्पमति से समझने का, आत्मसात् करने का दावा करता है ? यह कैसी विडंबना है ? और फिर तेरे द्वारा लगाया गया अर्थ ही सही है; सरे-आम कहने की धृष्टता करता है ? दूसरों के अर्थ-निर्णय को बेबुनियाद करार देकर वाद-विवाद करने की नाहक चेष्टा करता है ? तू भली-भांति समझ ले कि तेरी मति अल्प है, श्रुतज्ञानावरण का क्षयोपशम अति मन्द है । ऐसी स्थिति में तेरे पास जो शास्त्रज्ञान है, वह अनिश्चित अर्थ से युक्त है। इसके बलबूते पर तू वर्षों तक वाद-विवाद करता रहेगा, फिर भी उसका पार नहीं पा सकेगा । उसके वास्तविक अर्थ को समझने में असफल सिद्ध होगा। ज्ञान के परमानंद का मुक्त मन से उपभोग नहीं कर सकेगा । संभव है कि वाद-विवाद और वितंडावाद में तू विजयी होगा और उसका आनन्द तेरे रोम-रोम को पुलकित कर देगा । लेकिन यह न भूलो कि बह आनंद क्षणिक है, क्षणभंगुर है और वैभाविक है ।
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