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________________ वाद-विवाद कर तत्त्व के साक्षात्कार की अपेक्षा रखना, दिन में तारे देखने का दावा करने जैसी बात है । जिस तरह कोल्हू का बैल लगातार बारह घंटे तक अविश्राम श्रम करने के बावजूद अपनी जगह से एक कदम भी, तिलमात्र भी आगे नहीं बढता । अत: हे प्रात्मन् ! तू अपनी प्रांखों पर यश-प्राप्ति, कीर्ति-प्राप्ति, संपत्ति और संपदा पाने की पट्टी बांधकर अंधी दौड तो लगा रहा है, लेकिन क्षणार्ध के लिये ठहर कर, अपनी आँख की पट्टी हटाकर तो जरा देख कि तू आत्मस्वरूप की मंजिल तक पहुँचा भी है ? कर्मराजा ने अपने माया-जाल में फंसाकर तेरी आँख पर पट्टी बाँध दी है । और तू है कि भ्रमित बन, उसी कर्म-निर्धारित भव-चक्र के फेरे लगा रहा है, चक्कर काट रहा है । ___ मतलब यह कि वाद-विवाद से अलिप्त रहकर शास्त्रज्ञान के माध्यम से आत्मस्वरूप की ओर गतिशील होना ही हितावह है । स्वद्रव्यगुण-पर्यायचर्या वर्या पराऽन्यथा । इति दत्तात्मतुष्टिमुष्ठिज्ञानस्थितिमुनेः ॥५॥३७॥ अर्थ : अपने द्रव्य, गुण और पर्याय में परिणति श्रेष्ठ है। पर द्रव्य, गुण और पर्याय में परिणति ठीक नहीं।' इस तरह जिसने प्रात्मा को संतुष्ट किया है, ऐसा संक्षिप्त रहस्यज्ञान, मुनिजन की मर्यादा मानी गयी है। विवेचनः हे मुनिवर्य ! तुमने अपने लिए समस्त ज्ञान का कौन सा रहस्य पा लिया है ? क्या उक्त रहस्यज्ञान से तुम अपने आप को संतुष्ट कर पाये हो ? ‘पर द्रव्य, परगुरण और पर पर्याय में परिम्रमण कर, तुम परिश्रान्त बन गये हो, थक गये हो । अनादि काल से 'पर' में परिभ्रमण कर तुम संतुष्ट नहीं हो, बल्कि उत्तरोत्तर तुम्हारे असंतोष में वद्धि ही होती रही है । अब उसे संतुष्ट करना जरूरी है । साथ ही यह कदापि न भूलो कि परद्रव्य, गुण और पर्याय में अभी वर्षों भटकने के बावजूद आत्मा को संतोष नहीं होगा, बल्कि उसके असंतोष में बढोतरी ही होने वाली है। __'हे प्रात्मन् ! तुम अपने में ही परिणति करो। तुम स्वयं विशुद्ध आत्मद्रव्य हो। अत: उसमें रमण करो । तू अपने में निहित ज्ञान, दर्शन, चारित्रादि गुणों में तन्मय हो जा । तू अपनी वर्तमान तीनों अवस्था Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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