________________
२० ]
[ जानसार श्री जैनदर्शन दोनों प्रकार की समाधि का सुचारू पद्धति से पांच योग द्वारा समन्वय करता है। श्री योगविशिका' में आचार्य श्री हरिभद्रसूरिजी ने यह समन्वय किया है और उपाध्यायजी ने उसे विशेष स्पष्ट किया है । यहाँ पाँच योगों द्वारा सविकल्प, निर्विकल्प समाधि बताई गई है।
+ (१) स्थान : सकलशास्त्रप्रसिद्ध कायोत्सर्ग-पर्यक बंध - पद्मासनादि आसन ।
(२) ऊर्णः शब्द । क्रियादि में बोले जानेवाले वर्णस्वरुप । (३) अर्थः शब्दाभिधेय का व्यवसाय । (४) आलंबनः बाह्य पतिमादि विषयक ध्यान । उपरोक्त चार योग 'सविकल्प समाधि' कहे जा सकते हैं ।
(५) रहितः रुपी द्रव्य के आलंबन से रहित निविकल्प चिन्मात्र समाधिरुप ।
यह योग निर्विकल्प समाधि स्वरूप है। पांच योग के अधिकारी
स्थानादियोग निश्चयनय से देशचारित्री एवं सर्वचारित्री को ही हो सकते हैं । क्रियारुप (स्थान---ऊर्ण) और ज्ञानरुप (अर्थ, आलंबन समाधिः सविकल्पकः निर्विकल्पकश्च । निवि कल्पस्य अङ्गानि(१) यमाः अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाः । (२) नियमाः शौच-संतोष-तपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि । (३) आसनानि करचरणादिसंस्थानविशेषलक्षणानि पडास्वस्तिकादीनि । (४) प्राणायामाः रेचकपूरक कुम्भकलक्षणाः प्राण निग्रहोपायाः । (५) प्रत्याहारः इन्द्रियाणां स्व-स्व विषयेभ्यः प्रत्याहरणम् । (६) धारणा अद्वितीयवस्तुन्यन्तरिन्द्रियधारणम् । (७) ध्यानं अद्वितीयवस्तुनि विच्छिद्य विच्छिद्य अन्तरिन्द्रियवृत्तिप्रवाहः । (८) समाधिस्तु उक्त सविकल्पक एव ।
- वेदान्तसार-ग्रन्थे लय-विक्षेप-कषाय-रसास्वादलक्षणाश्चत्वारो विघ्नाः ।
-वे० सारे + (१) स्थानम्-आसनविशेषरुपं कायोत्सर्गपर्यकबन्धपद्मासनादि
सकलशास्त्रप्रसिद्धम् ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org