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________________ धम संन्यान-योगसंन्यास ] [ १९ १. धर्मसंन्यास क्षपकश्रेणि में जब जीव द्वितीय अपूर्वकरण करता है, तब तात्त्विक रुप में यह 'धर्मसंन्यास' नाम का सामर्थ्य योग होता है । यहाँ क्षायोपशामिक क्षमा-आर्जव-मार्दवादि धर्मों से योगी निवृत्त हो जाता है। ★अतात्त्विक 'धर्मसंन्यास' प्रव्रज्याकाल में (देशविरति सर्वविरति ग्रहण करते हुए) भी होता है । वहाँ 'धर्म' औदयिक भाव समझने के हैं । उसका त्याग (संन्यास) करने में आता है अर्थात् अज्ञान, असंयम, कषाय, वेद, मिथ्यात्वादि धर्मों का त्याग किया जाता है ।। तात्त्विक 'धर्मसंन्यास' में तो क्षायोपश मिक धर्मो का भी संन्यास (त्याग) कर दिया जाता है अर्थात् वहाँ जीव को क्षायिक गुणों की प्राप्ति होती है । तात्पर्य यह है कि क्षायोपशामिक धर्म हो क्षायिक रुप बन जाते हैं । २. योगसंन्यास 'योग' का अर्थ कायादि के कार्य (कायोत्सर्गादि) हैं, इनका भी त्याग (संन्यास) सयोगी केवली भगवंत — आयोजिकाकरण' के बाद करते हैं । + सयोगी केवली (१३ वे गुणस्थान पर) समुद्घात करने से पहले 'आयोजिकाकरण' करते हैं। यह आयोजिका सभी केवली भगवंत करते हैं। ७. समाधि 'वेदान्त दर्शन' के अनुसार समाधि दो प्रकार की है : (१) सविकल्प समाधि (२) निर्विकल्प समाधि । निविकल्प समाधि के आठ अंग बताने में आये हैं और इन आठ अगों को ही सविकल्प समाधि कहा गया है । निर्विकल्प समाधि के चार विघ्न 'वेदान्तसार' ग्रंथ में बताये गये हैं । ; द्वितीयेऽपूर्वकरणे प्रमो धर्मसंन्याससंज्ञितः सामर्थ्ययोगः तात्त्विकः भवेत् । अपकथंणियोगिनः आयोपशमिकक्षान्त्यादिधर्मनिवृत्तेः । - योगदृष्टिसमुच्चये *अतात्त्विकम्तु प्रवज्याकालेऽपि भवति ।' -योगदृष्टिसमुच्चये + पंच-संग्रहे-क्षपकश्रेणि-प्रकरणे । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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