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________________ [ २१ समाधि ] और रहित) ये योग चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम बिना संभव नहीं हो सकते । 'जो जीव देशचारित्री या सर्वचारित्री नहीं है, उन जीवों में योग का मात्र बीज हो सकता है ।' किन्तु यह कथन निश्चय नय का है । व्यवहार नय तो योगबोज में भी योग का उपचार करता है । इससे व्यवहार नय से अपुनबंधकादि जीव भी योग के अधिकारी हो सकते हैं । ८. पांच आचार भेाक्षमार्ग की आराधना के मुख्य पांच मार्गों को 'पंचाचार' कहा जाता है । यहाँ 'श्री प्रवचनसारोद्धार' ग्रन्थ के आधार पर उसका संक्षिप्त विवरण दिया जाता है । १. ज्ञानाचार १. काल :, आगमग्रन्थों के अध्ययन के लिए शास्त्रकारों ने कालनिर्णय किया है, उस समय में ही अध्ययन करना । २. विनय : ज्ञानी, ज्ञान के साधन और ज्ञान का विनय करते हुए ज्ञानार्जन करना । ३. बहुमान : ज्ञान-ज्ञानी के प्रति चित्त में प्रीति धारण करना। ४. उपधान : जिन जिन सूत्रों के अध्ययन हेतु शास्त्रकारों ने जो तप करने का विधान बताया है, वह तप करके ही शास्त्र का अध्ययन करना । उससे यथार्थ रुप में सूत्र की शीघ्र धारणा हो जाती है । ५. अनिलवन : अभिमानादिवश या स्वयं की शंका से श्रुतगुरू का या श्रुत का अपलाप नहीं करना । ६. व्यंजन : अक्षर-शब्द-वाक्य का शुद्ध उच्चारण करना । (२) उर्णः-शब्दः स च क्रियादी उच्चार्यमाणसूत्रवर्णलक्षणः । (३) अर्थ - शब्दाभिधेयव्यवसायः । (४) आलंबनम् - बाह्यप्रतिमादिविषयध्यानम् । (५) रहितः- रूपिद्रव्यालम्बनरहितो निर्विकल्पचिन्मात्रसमाधिरूपः । - योगविशिकायाम् Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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