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________________ २२ ] [ ज्ञानसार ७. अर्थ : अक्षरादि से अभिधय का विचार करना । ८. ऊभय : व्यंजन-अर्थ में फेरफार किये बिना तथा सम्यक उपयोग रखकर पढ़ना । २. दर्शनाचार १. निःशंकित : जिनवचन में संदेह न रखना । २. निःकांक्षित : अन्य मिथ्यादर्शनों की आकांक्षा नहीं करना। ३. निविचिकित्सा : 'साधु मलीन हैं।' ऐसी जुगुप्सा नहीं करना। ४. अमूढ़ता : तपस्वी विद्यावंत कुतीथिक की ऋद्धि देखकर चलित नहीं होना । ५. उपबृहणा : सामिक जीवों के दान-शीलादि सद्गुणों की प्रशंसा करके, उनके सद्गुणों की वृद्धि करना । ६. स्थिरीकरण : धर्म से चलचित्त जीवों को हित -मित-पथ्य वचनों के द्वारा पुनः स्थिर करना । ७. वात्सल्य : साधर्मिकों की भोजनवस्त्रादि द्वारा भक्ति व सन्मान करना । ८. प्रभावना : धर्मकथा, वादीविजय, दुष्कर तपादि द्वारा जिनप्रवचन का उद्योत करना । (यद्यपि जिनप्रवचन स्वयं शाश्वत् जिनभाषित और सुरासुरों से नमस्कृत होने से उद्योतीत ही है, फिर भी स्वयं के दर्शन की निर्मलता हेतु, खुद के किसी विशेष गुण द्वारा लोगों को प्रवचन की ओर आकर्षित करना ।) ३. चारित्राचार पाँच समिति [ ईर्यासमिति, भाषासमिति, ऐषणासमिति, आदानभंडमत्तनिक्षेपणासमिति और पारिष्ठापनिका समिति] तथा तीन गुप्ति [ मनोगुप्ति, वचनगुप्ति, कायगुप्ति ] द्वारा मन-वचन-काया को भावित रखना । ४. तपाचार अनशन, उणोदरी, वृत्तिसंक्षेप, रसत्याग, कायक्लेश और संलीनता, इन छ: बाह्य तपों द्वारा आत्मा को तपाना। [यह छः प्रकार का तप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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