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ज्ञानसार
-बाह्यदृष्टि भ्रान्तिरुप और बाह्यदृष्टि का दर्शन भी भ्रान्तिस्वरुप ही होता है !
__फलतः भ्रान्ति के विषवृक्षों की छाया में तत्त्वदृष्टि आत्मा आराम से नहीं सोती, निर्भय बनकर विश्राम नहीं करती । क्योंकि भलिभांति मालुम है कि यहां सोने में, विश्राम करने में जान का जोखिम है । संभव है कभी-कभार उसे विषवृक्षों को घटाओं से गुजरना पडे, लेकिन उस की तरफ उसका आकर्षण कतई नहीं होता ।
बाह्यदृष्टि में 'अहं' और 'मम' के विकल्प होते हैं, वह उपादेय को हेय और हेय को उपादेय सिद्ध करने की कोशिश करती है। वास्तविक सुख के साधनों में दुःख का दर्शन और दुर्गति के कारणभूत साधनों में सुख का आभास पैदा करती है। साथ ही वह इन्द्रियों के विषयों में और मन के कषायों के प्रति कर्तव्य बुद्धि का ज्ञान कराती है । और शम-दम-तितिक्षा में, क्षमा, नम्रता, निर्लोभिता, सरलतादि में निःसारता बताती है । अतः बाह्यदृष्टि के प्रकाश में जो भी दिखाई दे उसे भ्रमका ही स्वरूप समझना । तत्त्वदृष्टि महात्मा बाह्यदृष्टि के प्रकाश को भ्रान्ति ही समझता है । उसकी सहायता से विश्व के पदार्थों को समझने का प्रयत्न ही नहीं करता है ।।
बाह्यदृष्टि की अपनी यह विशेषता है कि वह विषयोपभोग में दुःख की प्रतीति नहीं कराती । इन्द्रियों के उन्माद में अशांति महसूस नहीं होने देती । कषायों के दावानल में जलते जीव को 'मैं जल रहा हूँ,' का आभास नहीं होने देती ! परिणाम-स्वरूप बाह्यदृष्टि की वाटिका के विषवृक्षों को देख जो ललचा गया, उसके सुंदर मोहक रूप वाले फलों को निहार लुब्ध हो गया, वह अल्प समय में ही अपना होश खोकर घोर वेदनाओं का अनुभव करता है !
तत्त्वदृष्टि प्रात्मा अपनी अंतरात्मा के सुख से ही परिपूर्ण होता है ! उसे किसी अन्य सुख की कामना-स्पृहा नहीं होती ! अतः वह कभी बहिष्टि की वाटिका में प्रवेश नहीं करता ! कभी-कभार उसे उस वाटिका में से गुजरना पडे तो वह भूल कर भी कभी वहाँ के विषवृक्षों की सुन्दरता को देखकर मुग्ध नहीं होता, ना ही उससे प्रभावित हो क्षणार्ध के लिए उनकी घनी शितल छाया में बैठने का नाम लेता है!
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