________________
तत्त्वदृष्टि
२६५
रहा है, और नानाविध विडम्बनायों का शिकार बना है। फिर भी जिनेश्वर भगवंत को तत्त्वदृष्टि उसे मिली नहीं ।
जिस दृष्टि से प्रात्मा के प्रति अनुराग की भावना पनपती है, वह तात्त्विक दृष्टि कहलाती है, जब कि जिससे जड़-पुद्गल के प्रति अनुराग पैदा होता है वह चर्मदृष्टि है ।
केवलज्ञानी भगवंत की दृष्टि पूर्ण तत्त्वदृष्टि होती है। उस से सकल विश्व के चरावर पदायों का कालिक दर्शन होता है। यह दर्शन परहित होता है, हर्ष-शोक से मुक्त होता है । आनन्द-विषाद से रहित होता है । अरुपी आत्मा का भी प्रत्यक्ष दर्शन होता है । केवलज्ञानी भगवंतों ने जिस मार्ग का अवलम्बन कर ऐमा पूर्ण तत्त्व-दृष्टि से युक्त केवलज्ञान प्राप्त किया है उसी मार्ग पर चल कर हो केवलज्ञान प्राप्त किया जा सकता है । और वह मार्ग है सम्यग् दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र का ।
भुल कर भी कभो शब्द, रुप, रस, गंध और स्पर्श के मोह से ग्रस्त न बनो ! प्रात्मस्वरुप में सदा-सर्वदा लीन रहो ! तभी पूर्णता प्राप्त होगी। सभी उपदेशों का यही सारांश है। तात्पर्य है। अनादिकालीन बुरी आदतों को, मन को समझा कर छोडने का पुरुषार्थ करो। नये सिरे से नयो आदतों का श्रीगणेश करो। पात्ल-स्मरण, आत्मरति और आत्मस्वरूप में लोनता के लिए सम्यक श्रुतज्ञान में लोन रहो; साथ हो सम्यक् चारित्र से जावन का संयमी बनाओ।
भ्रमवाटी बहिर्दष्टिभ्रंमच्छाया तदीक्षणम् ।
अभ्रान्तस्तत्त्वष्टिस्तु नास्यां शेते सुखाशया ॥२॥१४६॥ अर्थ : बाह्य दृष्टि भ्रान्ति की वाटिका है और बाह्य दृष्टि का प्रकाश भ्रान्ति
की छाया है । लेकिन भ्रान्तिविहीन तत्त्व दृष्टि वाला जीव भूमकर
भी भ्रमकी छाया में नहीं सोता । विवेचन : बाह्यदृष्टि,
-भ्रान्ति के विषवक्षों से युक्त वाटिका !
-भ्रान्ति के वृक्षों की छाया भी भ्रान्ति हो है ! क्यों कि विषवृक्षों को छाया भो आखिर विष ही होता है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org