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ज्ञानमार
रूपे रूपधती दृष्टिदृष्टवा रूपं विमुह्यति । मज्जष्यात्मनि नीरूपे तत्त्वदृष्टिस्त्वरूपिणी ।।१।। ॥१४५।। अर्थ : रुपी दृष्टी रूप को निहारकर मोहित हो जाती हैं, जबकि रूप
रहित तत्त्वदृष्टि रूपरहित आत्मा में लीन हो जाती है । विवेचन : तत्त्वदृष्टि !
वासनामों का निर्मलन करनेवाली तीक्ष्ण दृष्टि !
हमें अपनी दृष्टि को तात्विक बनाना है, अर्थात् विश्व के पदार्थों का दर्शन तात्त्विक दृष्टि से करना है ! तात्त्विक दृष्टि से किये गये पदार्थ-दर्शन में राग-द्वेष नहीं होते, असत्य नहीं होता।
चर्म चक्ष चमड़े का सौन्दर्य निहार कर मोहित होती है, मुग्ध होती है। रागद्वेषका कारण बनती है। चर्म चक्षु से संसार मार्ग का दर्शन होता है। उससे मोक्षमार्ग का दर्शन नहीं होता । मोक्ष-मार्ग केदर्शन हेतु तात्त्विक इष्टि की आवश्यकता है। इसी तात्त्विक दृष्टि को आनन्दघनजी महाराज 'दिव्य-विनार' कहते हैं ।
चरम नयणे करी मारग जोवतां भल्यो सयल संसार । नेणे नयने कारी मारग जोइए नयन ते दिव्य विचार । पंथडो निहालु रे बीजा जिन तरणो.......
अरुपी तात्मिक दृष्टि से ही अरुपी आत्मा का दर्शन कर सकते हैं। क्योंकि तात्विक-दृष्टि और आत्मा दोनों अरुपी है। यानी अरुपी का अरुपी से ही दर्शन संभव है। जैसे पोद्गलिक दृष्टि से पुदगल का दर्शन !
चर्मदृष्टि....पुद्गल-दृष्टि....चरम नयन....ये सब शब्दपर्याय हैं ! प्रात्म-दर्शन हेतु इन दृष्टियों का उपयोग नहीं होता, उसके लिए अरुपी ऐसी तात्त्विक दृष्टि ही उपयोगी है । इसके खलते ही प्रात्म-प्रशंसा अथवा परनिदा जैसी बुरी लतें छूट जाती हैं। तत्त्वदृष्टि सिर्फ खुलती है सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, और सम्यक चारित्र की उपासना एवं आराधना से !
हमेशा खयाल रखो कि तत्त्वभूत पदार्थ एक मात्र प्रात्मा ही है। शेष सब पारमार्थिक दृष्टि से असत् है । लेकिन यह जीव अनादिकाल से तत्त्वभूत प्रात्मा का विस्मरण कर प्रतत्त्वभूत पदार्थों के पीछे बावरा बना भटकता रहा है, दुःखी हुआ है, नारकीय यंत्रणाएँ सहता
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