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मध्यस्थता
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स्थीयतामनुपालम्भं मध्यस्थेनान्तरात्मना ।
कुतर्ककर्करक्षेपस्त्यज्यतां बालचापलम् ॥१॥१२१ अर्थ :- शुद्ध प्रान्तरिक परिणाम से मध्यस्थ हो कर, उपालंभ नहीं आये
इस तरह रहो। कुतर्करूप कंकर फेंकनेरूप बाल्यावस्था की चंचलता का
त्याग करो। विवेचन : प्रात्मस्वभाव में निमग्न रहना, न किसी के प्रति राग, ना हि द्वेष, यही मध्यस्थता है । इस तरह मध्यस्थता की अधिकारी हमारी अंतरात्मा बने, यह पूर्ण सौभाग्य की बात है। सचमुच, जीवन का वास्तविक आनन्द हर्षोल्लास इसी मध्यस्थ-दृष्टि में समाया हुआ है। जड़-चेतन द्रव्यों के प्रति राग-द्वेष करने से और विकृत आनंद से मन बहिर्मुख बनता है, भवाभिनंदी बनता है। तदुपरान्त राग-द्वेषयुक्त बाह्यात्मा अपने कुत्सित कार्यों को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए बालसुलभ क्रीड़ा की तरह कुतर्क का आधार लेता है । फलस्वरूप ऐसे जीवों को नानाविध उलाहनाओं का सामना करना पड़ता है। लोकनिंदा का भोग बनना पड़ता है..!
मध्यस्थता को सिद्ध करने के लिए निम्नांकित बातों का पालन करना पड़ता है :
• राग और द्वेष का त्याग, • अंतरात्म-भाव की साधना, • कुतर्क का त्याग
इन तीन बातों को जीवन में आत्मसात् करनी चाहिए ! रागद्वेष के परित्याग हेतु हमें उन को पूर्वभूमिका का समुचित मूल्यांकन कर विचार करना चाहिए।
प्राकृत मनुष्य में राग-द्वेष की जो प्रचरता दिखायी देती है, उसके पोछे दो तत्त्व काम कर रहे हैं : सुखासक्ति और भोगोपभोग की प्रवृत्ति । जब उसे सुख मिलता है और वासना-पूर्ति यथेष्ट मात्रा में होती है, तब वह रागी बनता है । लेकिन जब सुख नहीं मिलता और वासनापूर्ति नहीं होती तब वह द्वेषी बनता है। ऐसी हालत में जड़-चेतन दोनों के प्रति उस के मन में असीम राग और अनहद द्वेष निरंतर उफनता रहता है । इस तरह रागी और द्वेषी-ऐसा प्राकृत मनुष्य सुख
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