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मौन
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.... आत्माऽऽत्मन्येव यच्छुद्धं जानात्यात्मानमात्मना ।
सेयं रत्नत्रये ज्ञप्तिरुच्याचारैकता मुनेः ॥२॥१८॥
अर्थ :- प्रात्मा के विषय में ही प्रात्मा.सिर्फ कर्मरहित प्रात्मा को प्रात्मा से
जानती है ! वह ज्ञान, दर्शन, एवं चारित्र रूपी तीन रत्नों में ज्ञान,
श्रद्धा और आधार की अभेद परिणति मुनि में होती है। विवेचन :- आत्मसुख की स्वाभाविक संवेदना हेतु ज्ञान, श्रद्धा एवं प्राचार की 'अभेद परिणति' होना आवश्यक है । इस 'अभेद परिणति' संबंधित उपाय एवं उस का स्वरूप यहाँ बताया गया है ।
मात्मा आत्मा में ही आत्मा द्वारा विशुद्ध आत्मा को जानें !
जानने वाली प्रात्मा, प्रात्मा में जाने, आत्मा द्वारा विशुद्ध प्रात्मा को जाने । ऐसी स्थिति में ज्ञान, श्रद्धा और आचार एकरूप हो जाते हैं ! प्रात्मा सहज/स्वाभाविक आनन्द से सराबोर हो जाती है ! परपुद्गल से बिल्कुल अलग हो .... निलेप ! निरपेक्ष बन कर आत्मा को जानने की क्रिया करनी पड़ती है और आत्मा को ही जानना है ! तब सहज ही मनमें प्रश्न उठता है : 'कैसी आत्मा को जानना है ?' हमें कर्मों के काजल से मुक्त प्रात्मा को जानना है । ऐसी आत्मा को, जिस पर ज्ञानावरणीय-दर्शनावरणीय-मोहनीय अंतराय, नाम, गोत्र, वेदनीय
और आयुष्य-इन आठ कर्मों का बिलकुल प्रभाव न हो, बल्कि इन सब कर्म-बन्धनों से वह पूर्णतया निलिप्त हो। हमें एक स्वतंत्र आत्मा को जानना है । उसका दर्शन करना है । प्रस्तुत तथ्य को जानने के लिए यदि किसी की सहायता की आवश्यकता हो तो आत्मा की ही सहायता लेनी चाहिए ! आत्मगुरणों का सहयोग प्राप्त करना चाहिए !
हाँ एक बात है ! और वह यह कि जानने को क्रिया करते समय दो बातों की ओर ध्यान देना जरुरी है : ज्ञपरिज्ञा और प्रत्याख्यान परिज्ञा० इन दो परिज्ञा से हमें प्रात्मा को जानना है, पहचानना है । आम० देखें परिशिष्ट
* देखिए परिशिष्ट
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