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ज्ञानसार
है, जब वह किसी नारी अथवा अन्य के सिर पर हो और उसका उपयोग पानी लाने-ले जाने के लिए किया जाता हो ! एक स्थान से दूसरे स्थान पर पानी लाने-ले जाने की क्रिया के स्वरूप में 'एवंभूत' नय घड़े को देखता है ! और वह प्रसिद्ध क्रिया में रहे हुए घड़े का बोध कराने वाले के रूप में 'घड़ा' शब्द, इस नय को सहमत है ! ... 'मुनि' शब्द की व्युत्पत्ति है : 'मन्यते जगत्तत्वं सो मुनिः।' अर्थात् जो जगत् के तत्त्व का ज्ञाता है, वह मुनि कहलाता है। ऐसे ही मुनि के अनंत स्वरूपों में एक स्वरूप का ‘एवंभूत' नयदृष्टि से विचार किया गया है ! जगत्-तत्त्व को जानने के स्वभाव-स्वरूप मुनि का उल्लेख किया गया है ! मतलब, जगत-तत्त्व का परिज्ञान ही मुनि-स्वरुप का माध्यम बना है ।
जिस स्वरूप में जगत् का अस्तित्व है उसी स्वरूप में जानना' यही श्रमणत्व है.... और वही सम्यक्त्व है ! क्योंकि जगत्-स्वरूप का यथार्थ ज्ञान हो समकित है । जगत-तत्त्व का ज्ञान = सम्यक्त्व
सम्यक्त्व = श्रमणत्व जगत्-तत्त्व का ज्ञान = श्रमणत्व .. मुणी मोणं समायाए धणे कम्मसरीरगं ! पंतं लहं च सेवन्ति वीश समत्तदंसिरगो ।।।
उत्तराध्ययने ऐसी साधुता को अंगीकार कर श्रमण, कामैण शरीर को समाप्त करता है, अर्थात् आठों कर्मों का विध्वंस करता है, क्षय करता है। जब जगत्-तत्त्व के ज्ञानरूप श्रमणत्व का प्रादुर्भाव होता है, तब वह सम्यक्त्वदर्शी नर-पुंगव रूखे-सूखे भोजन का सेवन करता है ! क्योंकि इष्ट, मिष्ट और पुष्ट भोजन के सम्बन्ध में उसके मन में कोई ममत्व नहीं होता, स्पृहा नहीं होती ! ..
जगत-तत्त्व का ज्ञान, द्रव्याथिक-पर्यायाथिक नयदृष्टि से, द्रव्य-गुण* एवं पर्याय की शैली से तथा निमित्त-उपादान की पद्धति से तथा उत्सर्गअपवाद के नियमों से होना चाहिए । * देखिए परिशिष्ट :
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