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मौन
मन्यते यो जगत् तत्त्वं स मुनिः परिकीर्तितः ! सम्यक्त्वमेव तन्मौनं मौनं सम्यक्त्वमेव वा ॥१॥ ६७ ॥
अर्थ -: जो जगत् के स्वरूप का ज्ञाता है, उसे मुनि कहा गया है ! अंतः सम्यक्त्व ही श्रमणत्व है और श्रमणस्व ही सम्यकूत्व है !
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विवेचन :- मोक्षमार्ग की आराधना का अर्थ ही है मुनि-जीवन की आराधना । अतः मोक्षमार्ग के अभिलाषी आराधकों को प्रायः श्रमण जीवन की आराधना करनी चाहिए ! साथ ही आराधना करने के पूर्व श्रमणजीवन की वास्तविकता को यथार्थ स्वरूप में आत्मसात् करना चाहिए, समझना चाहिए | जिसका दिग्दर्शन/ विवेचन सर्वज्ञ - सर्वदर्शी परमात्मा ने किया है ! श्रमरणत्व के यथार्थ स्वरूप को जानकर श्रद्धाभाव से उस का आचरण करना चाहिए !
यहाँ मुनि जीवन का स्वरूप 'एवंभूत' नयदृष्टि से बताया गया है, विश्व में रहा प्रत्येक जड़-चेतन पदार्थ अनंत धर्मात्मक होता है, अर्थात् एक वस्तु में अनेक धर्मों का समावेश होता है ! हर वस्तु का अपना अलग विशिष्ट धर्म होता है ! मतलब एक-एक धर्म, वस्तु का एक-एक स्वरूप है ! वस्तु भले ही एक हो, लेकिन उस का स्वरूप अनंत है, विविध है ! जब कि वस्तु की पूर्णता उसके अनंत स्वरूप के समूहरूप में होती है ! वस्तु के किसी एक स्वरूप को लेकर जब विचार किया जाता है, तब उसे 'नयविचार' कहते हैं ! प्रस्तुत में 'मुनि' जो स्वयं में एक चेतन पदार्थ है, उसके अनंत स्वरूपों में से किसी एक स्वरूप का विचार किया जाता है ! अत: यह विचार ' एवंभूत' नय का विचार है !
'एवंभूत' नय शब्द और अर्थ दोनों का विशिष्ट स्वरूप बताता है ! उदाहरण के लिए हम 'घड़ा' शब्द को ही लें ! यहाँ 'घड़ा' शब्द और 'घड़ा' पदार्थ- दोनों के सम्बन्ध में 'एवंभूत' नय की विशेष दृष्टि है ! शब्दशास्त्र के नियमानुसार शब्द की जो व्युत्पत्ति होती है, वह व्युत्पत्ति - संदर्शित पदार्थ ही वास्तविक पदार्थ माना गया है ! साथ ही शब्द भी वह तात्विक है, जो उसकी नियत क्रिया में पदार्थ को स्थापित करता है ! इस तरह नयदृष्टि से घड़े को तभी घड़ा माना जाता
* देखिए परिशिष्ठ
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