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निले पता
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उस दारुण दु:ख के आधार को ही जड- मल से उखाडकर फेंक दिया जाये, तो कितना सुभग और सुन्दर कार्य हो जायं? और यह मत भूलो कि इस प्रकार की विषमता का मल है - पदगलभाव के पीछे रही दुष्ट-बुद्धि उस को परिवर्तित करने के लिये जीव को विचार करना पडेगा कि 'मैं पौद्गलिक भाव का कर्ता, प्रेरक और अनुमोदक नहीं हूँ।'
दूसरी वासना है- पुद्गलभावों के प्रेरकत्व की । “मैंने दान दिलाया, मैंने घर दिलवाया, मैंने दुकान करवायी ।" इस तरह की भावना अपने मन में निरन्तर संजोकर जीव स्यंग को पुद्गलभाव का प्रेरक मान कर मिथ्याभिमानी बनता है । फलस्वरूप वह कर्म-कीचड़ में धंसता ही जाता है । अतः " मैं पुद्गलभाव का प्रेरक नहीं हूँ," इस भावना को दृढ़ - सुदढ़ बनाना चाहिये । इसी भांति तीसरी वासना है पुद्गलभाव को अनुमोदना ! पुद्गलभाव का अनुमोदन मतलब आन्तरिक और वाचिक रूप से उसकी प्रशंसा करना। "यह भवन सुन्दर है ! यह रूप/ सौ दयं अनुपम है ! यह शब्द मधुर, मंजुल है ! यह रस मीठा है ! यह स्पर्श सुखद है ।" आदि चिन्तन से जीव पुद्गल-भाव का अनुमोदक बन, कर्मलेप से लिप्त होता रहता है और असह्य यातना का शिकार बनता है । अतः "मैं पुदगल-भाव का अनुमोदक नहीं।" इस भाव के वशीभूत हो, भावना-ज्ञान की शरण लेनी चाहिये । प्रस्तुत भावना को हजार नहीं लाख बार अपने मन में स्थिर कर उसका रसायन बनाना चाहिये । तभी भावना-ज्ञान की परिणति सिद्ध-रसायन में होगी । फलतः कैसा भी शक्तिशाली कर्म-लेप आत्मा को लग नहीं सकेगा।
- आत्मा स्वयं अपने मूल स्वरूप में स्वगुणों की कर्ता और भोक्ता है । पुद्गलभाव का कर्तृत्व-भोक्तत्व आत्मा के विशुद्ध स्वरूप में है ही नहीं | 'तब भला, जीव पुद्गल-भाव में क्यों कर कतत्व का अभिमान करता है ?' इस प्रश्न के प्रत्युत्तर में यों कह सकते हैं कि जीव और कर्म का अनादि संबन्ध है । कर्मा से प्रभावित होकर जीव पुद्गलभाव के साथ अनन्त काल से कर्तृत्व-भोक्तृत्व आदि भाव धारण करता रहा है । प्रात्मा के शुद्ध स्वरुप के अनुराग से कर्मा का प्रभाव उत्तरोत्तर क्षीण होता जाता है । परिणामस्वरुप पुद्गलभाव के प्रति रही कर्तृत्वभोक्तृत्वादि मिथ्या भ्रान्ति भी क्षीण होती जाती है । ज्यों-ज्यों आत्मा
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