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ज्ञानसार
के शुद्ध स्वरूप का राग वृद्धिंगत होता जाता है, त्यों-त्यों जड़ पुद्गल-भाव के प्रति वैराग्य वृत्ति का उदय होता जाता है और जीव त्याग - मार्ग की ओर गतिमान होता रहता है ।
लिप्यते पुद्गलस्कन्धो, न लिप्ये पुद्गलरहम् ।।
चित्रव्योमांजनेनैव, ध्यायन्निति न लिप्यते ॥३।।८।। अर्थ 'पुद्गलों का स्कान्य पुद्गलों के द्वारा ही लिप्त होता है, ना कि मैं ।
जिस तरह अंजन द्वारा विचित्र प्रकाश ।' इस प्रकार ध्यान करती
हुई प्रात्मा लिप्त नहीं होती । विवेचन:- प्रात्मा को निर्लिप्तावस्था का ध्यान भी न जाने कैसा असरकारक/प्रभावशाली होता है ! ध्यान करो! जब तक ध्यान की धारा अविरत रूप से प्रवाहित है, तब तक यात्मा कर्म-मलिन नहीं बन सकती।
यदि यह दृढ़ प्रणिधान कर दिया जाए कि 'मुझे कर्म - कीचड़ में फँसना ही नहीं है, तभी कर्म से निलिप्त रहने की प्रवत्ति होगो । तुम्हारा प्रणिधान जितना मजबूत और दृढ़ होगा, प्रवृत्ति उसी अनुपात में वेगवती और प्रबल होगी । अतः जीव का प्रथम कार्य है-प्रणिधान को दृढ़ - सुदृढ़ बनाना और उसके लिये कर्म के चित्र-विचित्र विपाकों का चिन्तन करना ।
कर्मा से मुक्त होने की चाह पैदा होते ही कर्मजन्य सुख-सुविधाओं के प्रति नफरत/घणा पैदा होगी । अति आवश्यक सुख-सुविधा में भी अनासक्तिभाव. होना जरूरी है। और उसी अनासक्ति-भाव को स्वाभाविक रूप देने के लिये पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने 'पुद्गल - विज्ञान' का चिन्तन -मनन करने का प्रभावशाली उपाय सुझाया है।
'जिस तरह अंजन से विविध वर्ण युक्त आकाश लिप्त नहीं होता, ठीक उसी तरह पुद्गलसमुदाय से चैतन्य लिप्त नहीं बनता।" ।
यदि जीव अति आवश्यक पुद्गल - परिभोग के समय यह चिन्तन अविरत करता रहे तो पुद्गल-परिभोग की क्रिया के बावजूद भी वह लिप्त नहीं बनता । साथ ही पुद्गल- परिभोग में सुखगद्धि अथवा रसगृद्धि पैदा नहीं होती। और यदि सुख-गृद्धि या रस- गृद्धि पैदा होती हो तो समझ लेना चाहिये कि ध्यान प्रबल नहीं है, ना ही ध्यान की
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