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नले पता
पूर्व भूमिका में प्रणिधान दृढ़ है। ऐसी परिस्थिति में जोव कभी भटक जाता है, अपना निर्दिष्ट मार्ग छोड़ देता है और मान बैठता है कि 'पुद्गलों से पुद्गल उपचय पाता है, बल्कि मेरी आत्मा उसमें लिप्त नहीं होती । फलतः पूर्ववत् मनमौजी बन पुद्गलपरिभोग में आकंठ डूब जाता है । उसमें हो निर्भयता का अनुभव करता है । यह एक प्रकार की भयंकर आत्मवंचना ही है ।
इस विचार से कि ' पुद्गलों से पुद्गल बँधता है ।' जीव में रहा यह अज्ञान कि ' पुद्गलों से मुझे लाभ होता है .... पुद्गलों से में तृप्त होता हूं', सर्वथा नष्ट हो जाता है । और फिर पुद्गल के प्रति रहा हुआ आकर्षण तथा परिभोग-वृत्ति शनैःशनैः क्षीण होती जाती है |
एक पुद्गल दूसरे पुद्गल से कैसे आबद्ध होता है, जुड़ता है, इसका वर्णन श्री जिनागमों में सूक्ष्मतापूर्वक किया गया है । पुद्गल में स्निग्धता एवं रुक्षता दोनों गुणों का समावेश है। स्निग्ध परिणाम वाले और रुक्ष परिणाम वाले पुद्गलों का आपस में बन्ध होता है, वे परस्पर जुड़ते हैं । लेकिन इसमें भी अपवाद है । जघन्य गुणधारक स्निग्ध पुद्गल और जघन्य गुणधारक रुक्ष पुद्गलों का परस्पर बन्ध नहीं होता । वे आपस में नहीं जुड़ पाते । जब गुण की विषमता होती है, तब सजातीय पुद्गलों का भी परस्पर बन्ध होता है । अर्थात् समान गुण वाले स्निग्ध पुद्गलों का, ठीक वैसे ही तुल्य गुण वाले रुक्ष पुद्गलों का सम - धर्मी पुद्गलों के साथ आपस में बन्ध नहीं होता ।
आत्मा के साथ पुद्गलों का जो संबन्ध है, वह तादात्म्य संबन्ध' -नहीं' बल्कि 'संयोग - संबन्ध' है । ग्रात्मा और पुद्गल के गुणधर्म परस्पर विरोधी, एक-दूसरे से बिल्कुल भिन्न हैं । अतः ये दोनों एकरूप नहीं बन सकते । ठीक इसी तरह पुद्गल और प्रात्मा का भेदज्ञान परिपक्व हो जाने के पश्चात् कर्मपुद्गलों से लिप्त होने का प्रश्न ही नहीं उठता। "भेदज्ञान को परिपक्व करने के लिये निम्नांकित पंक्तियों को आत्मसात करना परमावश्यक है ।
लिप्त होते पुद्गल सभी, पुद्गलों से मैं नहीं । अंजन स्पर्श न श्राकाश, है शाश्वत सत्य यही ॥ लिप्ता ज्ञान संपात - प्रतिघाताय केवलम् । निलें पज्ञानमग्नस्य क्रिया सर्वोपयुज्यते ॥४॥ ८४ ॥
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