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________________ १३४ ज्ञानसार निर्भयता का आगमन होगा और परमानंद पाने में क्षणार्ध का भी विलंब नहीं होगा। नाहं पदगलभावानां, कर्ता कारयिताऽपि च । नानुमन्ताऽपि चेत्यात्मज्ञानवान् लिप्यते कथम् ? ॥२॥ ८२॥ अर्थ :- मैं पौद्गलिक - भावों का कर्ता, प्रेरक और अनुमोदक नहीं हूँ', ऐसे विचारवाला आत्मज्ञानी लिप्त कैसे हो सकता है ? विवेचन :- ज्ञान - रसायन की सिद्धि का प्रयोग बताया जाता है। “ मैं पौद्गलिक भावों का कर्ता नहीं हूँ, प्रेरक नहीं हूँ। साथ ही पौद्गलिक भावों का अनुमोदक भी नहीं हूँ।" इसी विचार से आत्मतत्त्व को सदा सराबोर रखना होगा। एक बार नहीं, बल्कि बार-बार । एक ही विचार और एक ही चिन्तन ! निरन्तर पौद्गलिक-भाव में अनुरक्त जीवात्मा उसके रुप-रंग और कमनीयता में खोकर, पौद्गलिक भाव द्वारा सजित हृदय-विदारक व्यथा-वेदना और नारकीय यातनाओं को भूल जाता है, विस्मरण कर देता है । वास्तव में पौद्गलिक सुख तो दु:ख पर आच्छादित क्षरणजीवी महीन पर्त जो है, और क्रूर कर्मों के आक्रमण के सामने वह कतई टिक नहीं सकती । क्षणार्ध में ही चीरते, फटते देर नहीं लगती और जीवात्मा रुधिर बरसता करुण क्रन्दन करने लगता है। पौद्गलिक सुख के सपनों में खोया जीवात्मा भले ही ऐश्वर्य और विलासिता से उन्मत्त हो फूला न समाता हो, लेकिन हलाहल से भी अधिक घातक ऐश्वर्य और विलासिता का जहर जब उसके अंग-प्रत्यंग में व्याप्त हो जाएगा, तब उसका करुण क्रन्दन सुनने वाला इस धरती पर कोई नहीं होगा। वह फूट-फूट कर रोयेगा और उसे शान्त करने वाले का कहीं अतापता न होगा। मैं खाता हूँ.... मैं कमाता हूँ.... मैं भोगोपभोग करता हूँ .... मैं मकान बनाता हूँ ।" आदि कर्तृत्व का मिथ्याभिमान, जीवात्मा को पुद्गल-प्रेमी बनाता है । पुद्गलप्रेम ही कर्म- बन्धन का अनन्य कारण है । पुदगल-प्रेमी जीव अनादि से कर्म-काजल से लिप्त होता आया है । फलत : अपरम्पार दुःख और वेदनाओं का पहाड़ उस पर टूट पड़ता है । वह व्यथाओं की बेड़ियों में हमेशा जकड़ा जाता है । यदि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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