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ज्ञानसार
__० कर्म (ज्ञानावरणादि) समिध (लकडियाँ) हैं !
ब्रह्म रूपी प्रदीप्त अग्नि में ध्यान रूपी ऋचाओं के उच्चारण के साथ ज्ञानावरणादि कर्मों का होम करना ही नियाग है ! नियाग यानी भावयज्ञ ! केवल क्रिया-काण्ड द्रव्य-यज्ञ है ! नियाग (भावयज्ञ) के कर्ता मुनि कैसा हो....उसके समग्र व्यक्तित्व का वर्णन 'उत्तराध्ययन' सूत्र में किया गया है:
सुसंधुडापंचहिं संवरेहिं इह जीविवं अणवकंखमाणा ।
वोसट्टकाया सुचइत्त देहा जहाजवं जयइ जन्नसेढें ॥ "पांच संवरों से सुसंवृत्त, जीवन के प्रति अनाकांक्षी/उदासीन, शरीर के प्रति ममत्वहीन, पवित्र और देहाध्यास के त्यागी, कर्म-विजेता मुनि सर्व श्रेष्ठ यज्ञ करते हैं !"
अग्नि को प्रदीप्त करना पडेगा ! योग-उपासना द्वारा निष्प्रभ ब्रह्मतेज को प्रज्वलित करना है ! धर्म-ध्यान....शुक्ल ध्यान के आलम्बन से अशुभ कर्मों को जलाना है। इस प्रकार भाव-यज्ञ कर श्रेय की सिद्धि प्राप्त करनी है।
प्रस्तुत अष्टक में 'यज्ञ' के वास्तविक एवं मार्मिक स्वरुप का वर्णन किया गया है।
पापध्वंसिनि निष्कामे ज्ञानयज्ञे रतो भव !
सावधैः कर्मयः किं भूतिकामनयाऽविलः ॥२॥२१८॥ अर्थ : पापों का नाश करनेवाले और कामनारहित ऐसे ज्ञान-यज्ञ में आसक्त
हो ! सुखेच्छाओं से मलीन पापमय कर्म-यज्ञों का क्या प्रयोजन है ? विवेचन : तुम्हारे जीवन का लक्ष्य क्या है ? मन-वचन-काया के पुरूषार्थ की दिशा कौन सी है ? कौन सी तमन्ना मन में संजोये जीवन बसर कर रहे हो? क्या पाप-क्षय करना तुम्हारा उद्देश्य है ? अपनी आत्मा को निर्मल/ विमल बनाने की उत्कट महेच्छा है ? यदि यह सच है तो अविलम्ब ज्ञान-यज्ञ में जुड जाओ ! __ ऐसी परिस्थिति में पांच इन्द्रियों को क्षणिक तृप्ति देने वाले सुख की कामना हृदय के किसी कोने में भी नहीं होनी चाहिए । 'मुझे परलोक / स्वर्गलोक में दिव्य सुखों की प्राप्ति होगी !' ऐसी सुप्त
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