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[ ज्ञानसार (४) सूत्ररुचि : द्वादशांगी का अध्ययन एवं अध्यापन की भावना। 1धर्मध्यान के चार आलंबन हैं । (१) वाचना (२) पृच्छना (३) परावर्तना (४) धर्मकथा
अर्थात् सद्गुरु के पास विनयपूर्वक सूत्र का अध्ययन करना । उसमें अगर शंका हो तो विधिपूर्वक गुरूमहाराज के पास जाकर पृच्छा करना। निःशंक बने हुए सूत्रार्थ भूल न जायं इसलिए बार.बार उसका परावर्तन करना और इस प्रकार आत्मसात् हुए सूत्रार्थ का सुपात्र के सामने उपदेश देना । ऐसा करने से धर्मध्यान में स्थिरता प्राप्त होती है ।
धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षा है : (१) अनित्य भावना (२) अशरण भावना (३) एकत्व भावना और (४) संसार भावना ।
इन चार भावनाओं का निरन्तर चिन्तन करने से धर्मध्यान उज्जवल बनता है और आत्मसात् हो जाता है ।
श्री उमास्वाती भगवंत ने 'प्रशमरति' प्रकरण में धर्मध्यान की क्रमशः चार चितन धाराएं बताई हैं :
आज्ञाविचयमपायविचयं च सद्धचानयोगमुपसत्य ।
तस्माद्विपाकविचयमुपयाति संस्थानविचयं च ।। २४७ ।। १ आज्ञाविचय
1'आप्तपुरूष' का वचन ही प्रवचन है । यह है आज्ञा । उस आज्ञा के अर्थ का निर्णय करना विचय है । २ अपायविचय
__ मिथ्यात्वादि आश्रवों में, स्त्रीकथादि विकथाओं में, रस-ऋद्धि-शाता गारवों में, क्रोधादि कषायों में, परीषहादि नहीं सहने में आत्मा की १ धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि आलंबणा-वायणा, पुच्छणा, परियट्टणा घम्मकहा । २ धम्मस्स णं झाणस्स चत्तारि अणुप्पेहाओ-अनित्यत्वाशरणत्वकत्वसंसारानुप्रेक्षाः ।
__-श्री औपपातिक सूत्रे । १ आप्तवचनं प्रवचनं चाज्ञा, विचयस्तदर्थनिर्णयनम् । २ आस्रवविकथागौरवपरीषहाद्येष्वपायस्तु ।
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