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________________ स्थिरता ३७ पूर्णतया अभाव होता है । क्योंकि क्रियात्मक चारित्र में आत्मप्रदेश अस्थिर होते हैं । जब कि सिद्ध भगवंतों का एक भी प्रात्मप्रदेश अस्थिर नहीं, अपितु पूर्ण रूप से स्थिर होता है । जिस आत्मा का अन्तिम लक्ष्य 'सिद्ध' बनना है, उसे अपनी समग्र साधना का केन्द्रस्थान 'स्थिरता' को, 'स्थिर वृत्ति' को ही बनाना होगा। उसकी पूर्व तयारी के लिए तीन योगों को स्थिर करने का भरसक प्रयास करना पडेगा । उसमें भी सर्व प्रथम काया, वाणी और मन को पाप-प्रवृत्तियों से मुक्त कर और उसकी अस्थिरता को दूर कर उन्हें पुण्य प्रवत्तियों की ओर गतिशील बनाना होगा। अलबत्ता, पुण्यप्रवृत्ति में भी स्वाभाविक आत्मस्वरूप की रमणता रूपी स्थिरता का अभाव ही है । यहाँ भी इसे पाने के लिये काया के माध्यम से, पुण्यकर्मोपार्जन करने के लिये दौडधूप, वारणी के माध्यम से उपदेशदान और मन से पुण्यप्रवृत्तियों के मनोरथ और योजनायें जारी रखनी पड़ती हैं। इसके बावजूद भी आत्मप्रदेश सदा अस्थिर होते हैं । फिर भी यह सब अनिवार्य है । पापक्रियाओं से मुक्ति पाने हेतु पुण्यक्रियायें आवश्यक हैं । 'पुण्यप्रवृत्ति में भी अस्थिरता का भाव कायम है, बाह्य भाव का समावेश है । अतः वह त्याज्य है।' यदि इस विचार को मन में बनाये रखोगे तो अनादि काल से पापप्रवृत्ति में सराबोर बनी आत्मा क्या चुटकी बजाते ही पापप्रवृत्ति को त्याग देगी ? क्या वह आत्मस्वरूप की रमणता में अहर्निशे खो जाएगी ? उससे तादात्म्य साध लेगी ? इसका परिणाम कल्पना से विपरीत ही यह पाएगा कि 'पुण्य प्रवृत्ति में भी अस्थिरता है।' अतः वह पुण्यप्रवृत्ति से मुंह मोड लेगा । दुबारा उसकी ओर भूलकर भी नहीं देखेगा और सिर्फ पापप्रवृत्तियों में आकंठ डूब जाएगा! ___अतः साधक को चाहिए कि वह पाप-प्रवृत्तियों से मुक्त होकर अपने मन को सदा पुण्य-प्रवृत्तियों में पिरोये रख, विशुद्ध आत्मस्वरूप में रमणता रुपो स्थिरता को अपना अंतिम ध्येय-बिन्दु मानकर अपना जीवन व्यतीत करें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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