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________________ ज्ञानसार होते देर नहीं लगेगी । इस जगत में जो भी शुभ विचार एवं शुद्ध आचरण से च्युत हुआ है, उसके पीछे इसी पौद्गलिक सुख की स्पृहा से पैदा हुई अस्थिरता का ही हाथ रहा है। इसके मूल में पौद्गलिक सुखों की स्पृहा ही रही है। एक समय की बात है । युवक मुनि अरणिक पाहार-ग्रहण हेतु बाहर निकले । मध्याह्न का सूर्य तप रहा था । मारे गर्मी के लोगबाग व्याकुल हो रहे थे । युवक मुनि भी प्रखर ताप से बच नहीं पाये । उनका मन उद्विग्न और उदास था । तभी सामने रही प्रशस्त अट्टालिका के गवाक्ष में खड़ी षोडशी पर उनकी नजर पड़ी । युवती की बाँकी चितवन और दृष्टिक्षेप से वे घायल हो गये । उनके संयम जीवन में विक्षेप पड़ गया । वर्षों की साधना खाक में मिल गयी । संयम-साधना को शुभ विचारमाला छिन्न-भिन्न हो गयी । अस्थिरता ने अपना रंग दिखाया । पुडरिक नरेश की पौषधशाला में औषधोपचार हेतु ठहरे कंडरिक मुनि के चित्त प्रदेश पर विषयवासना की प्रांधी क्या उठी ? उनका त्यागी जीवन रसातल में चला गया । शिवपुरी का साधक दुर्गति के द्वार पर भिक्षुक बन भटक गया । ___क्या तुम्हें ऐसा अनुभव नहीं हुआ अब तक ? परमपिता परमात्मा की आराधना में तुम आकंठ डूबे हुए हो? तुम्हारा तन-मन और रोमरोम प्रभुभक्ति में अोतप्रोत हो उठा हो, वहीं किसी नवयौवना नारी पर अचानक तुम्हारी नज़र पड जाए.... वह तुम्हारे रोम-रोम में बस जाए...। तब क्या होता है ? अस्थिरता का उद्गम और प्रभु-भक्ति में बिक्षेप ! रंग में भग ! शुभविचारधारा चूर्ण-विचूर्ण ! चारित्रं स्थिरतारुपमत: सिद्धष्वपीध्यते ॥ • यतन्तां यतयोऽवश्यमस्या एव प्रसिद्धये ॥८॥२४॥ अर्थ : योग की स्थिरता ही चारित्र है और इसी हेतु से सिद्धि के बारे में भी कहा गया है। अतः हे यतिजनों, योगियों ! इसी स्थिरता की परिपूर्ण सिद्धि के लिये समुचित प्रयत्न करें। [ सदा प्रयत्नशील रहें] विवेचन : अख्य आत्मप्रदेशों की स्थिरता....सूक्ष्म स्पन्दन भी नहीं....! मही सिद्ध भगवंतों का चारित्र है । सिद्धों में क्रियात्मक चारित्र का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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