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स्थिरता
जबकि स्थिरता वह रत्नदीप है। जहाँ धुम्रवलय का कहीं नामोनिशान तक नहीं है । 'मैं सदैव अपने आत्मगुरणों में तल्लीन रहँ....!' निमग्न रहुँ....!' यह भावना है रत्नदीप ! ____'अतः इसके लिये मैं पर पदार्थों की आसक्ति से कोसों दूर रहुँ । बाह्य जगत को देखना, सुनना और भोगना.... जैसी क्रियाओं को पूरी तरह से त्याग दूं। देव, गुरु और धर्माचरण में अपने आप को लीन कर दूँ । तन-मन से धर्मश्रवण और धर्मोपासना में खो जाऊँ....।' यह रत्नदीप की प्रखर ज्योति है । इससे मनोमंदिर देदीप्यमान हो उठता है और विकल्प-प्राश्रवादि का अंधियारा छिन्न-भिन्न हो जाता है ।
उदीरयिष्यसि स्वान्तावस्थेयं पवनं यदि ।
समाधधर्ममेघस्य घटा विधटयिष्यसि ॥७॥२३॥ अर्थ : यदि अंतःकरण से अस्थिरता रूपी अांधी पैदा करोगे, तो निःसदेह
धर्म मेष-समाधि की श्रेणी को बिखेर दोगे । विवेचन : जिस तरह सनसनाती हवा के झोंके और आकाश में उठी भयंकर अांधी मेघघटाओं को छिन्न-भिन्न कर देती है, बिखेर देती है, ठीक उसी तरह मानसिक अस्थिरता/चंचलता भी समाधि-रूपी धर्ममेघ की घटाओं को बिखेर देती है । प्रकट होनेवाले केवलज्ञान को तितर-बितर कर देती है। 'धर्ममेघ' समाधि (योग) प्रात्मा की ऐसी श्रेष्ठ-सर्वोच्च दशा-अवस्था को कहा जाता है, जहाँ चित्त की सभी भावनाएँ, वत्तियाँ शान्त बन जाती हैं । तब वहाँ किसी शुभ विचार अथवा अशुभ विचार के लिए कोई स्थान नहीं होता । साथ ही ऐसी कोई चंचलता और अस्थिरता पैदा ही नहीं होती कि जिसके कारण केवलज्ञान प्रकट न हो सके ।
यह तो तुम भली भांति जानते ही हो कि मन के पौद्गलिक पदार्थों में फंसने मात्र से ही प्रात्मस्वरूप संबंधित शुभ विचार पैदा होने से रहे ! दान, शील, परमार्थ, परोपकारादि आत्मकल्याणकारक शुभ विचार भी टिक नहीं सकते । इससे एक कदम आगे चलकर यदि हम यह विधान करें तो अतिशयोक्ति न होगी कि, 'जहाँ कोई शुभ विचार काम कर रहा हो, वहाँ पौद्गलिक सुख की स्पृहा अगर बीच में आ जाए तो सब कुछ मटियामेट हो जाता है। जीवात्मा का पतन
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