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ज्ञानसार
और नानाविध विचारव्यापार से पैदा हुए : "अमुक मार्केट / बाजार में जाऊं, आलीशान दुकान बनाऊं, धूम-धडल्ले से व्यापार करूँ ! किसी बड़े प्रभावशाली धनी व्यक्ति को व्यापार में साझेदार बनाऊं ! अक्लमंदी और चातुर्य से व्यापार करूँ ! ढेर सारी संपत्ति बटोर लुँ । भव्य बंगला और अट्टालिका बना लूँ ! एम्पाला कार खरीद लूँ और दुनिया में इठलाता फिरु !" आदि हैं विकल्प के धूम्रवलय ! संकल्प दीप में से प्रायः विकल्प का धुआँ फैलता ही रहता है । जब कि संकल्प-दीप की ज्योति क्षणभंगुर है । वह प्रज्वलित होता है और बुझ भी जाता है । लेकिन पीछे छोड़ जाता है धुएँ की पर्ते ! एक नहीं अनेक ! श्रौर उससे मनगृह मटमैला, धुमिल बन जाता है ।
धनी बनने की एक भावना अपने पीछे हिंसादि अनेकानेक प्राश्रवों के विचारों की कतार लगा देती है । लेकिन इससे भला क्या लाभ ? सिवाय थकावट, क्लेश, खेद और अनदिखे आन्तरिक दर्दों की परंपरा, नीरा कर्मबन्धन ! धनिकता की भावना पैदा होती है और पानी के बुलबुले की तरह क्षणार्ध में लुप्त हो जाती है । लेकिन मनुष्य इसके व्यामोह में पागल बन नानाविध विकल्पों की भखना कर अपने मन को आर्तध्यान, रौद्रध्यान में पिरोकर विगाड देता है और उसी तरह विकल्पों के धुएँ में बुरी तरह फँसकर घुटन अनुभव करने लगता है, बबरा उठता है और परिणाम यह होता है कि हिंसादि आश्रवों का सेवन कर अन्त में मृत्यु का शिकार बन, दुर्गति को पाता है ।
धनी बनने की तीव्र लालसा की तरह कीर्ति की लालसा पैदा होना भी भयंकर बात है । " मैं मंत्री बनुं अथवा राष्ट्र का गरिमामय सर्वोच्च पद मुझे मिल जाए ! " संकल्प जगते ही विकल्पों की फौज बिना कहे पीछे पड़ जाएगी । विकल्प भी कैसे... कैसे ?' 'चुनाव लडु, पैसों का पानी करु.... अन्य दल के उम्मीदवार को पराजित करने के लिए विविध दाँवपेंच लडाने की योजना बनाऊँ....' आदि विकल्पों की पूर्ति हेतु हिंसा, असत्यादि आश्रवों/पापों का आधार लेते जरा भी नहीं हिचकिचाता । लेकिन यह सब करने के बावजूद भी वह मंत्री अथवा सर्वोच्चपद पर आसीन हो ही जाता है, सो बात नहीं । बल्कि पागल अवश्य बन जाता है ! नानाविध पापों का भाजन जरूर हो जाता है ।
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