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[ ज्ञानसार
* इस प्रकार तप से वह अल्पाहारी बने, इन्द्रियों को स्पर्शादि विषयों से दूर रखे, मधुर आहार में निःसंग बने, इन्द्रियविजेता बने । सत्त्व भावना
इस भावना में मुनि ‘पाँच प्रतिमाओं' का पालन करें ।
के जनशून्य....मलिन....तथा अन्धकारपूर्ण उपाश्रय में निद्रा का त्याग कर कायोत्सर्ग-ध्यान में खड़ा रहकर भय को जीतकर निर्भय बने । उपाश्रय में फिरनेवाले चूहे, बिल्ली आदि द्वारा होने वाले उपसर्गों से भय प्राप्त न करे, भाग न जाए ।
उपाश्रय के बाहर रात्रि के समय कायोत्सर्गध्यान में खड़ा रह कर चूहे, बिल्ली, कुत्ते तथा चोरादि के भय को जीते ।
* जहाँ चार मार्ग मिलते हों, वहाँ जाकर रात्रि के समय ध्यान में रहे । पशु, चोरादि के भय को जीते ।।
* खण्डहर........शून्यघर में जाकर रात्रि के समय ध्यान में स्थिर रहकर उपद्रवों से डरे नहीं और निर्भय रहे ।
* श्मशान में जाकर कायोत्सर्ग ध्यान में खड़ा रहे और सविशेष भयों को जीते ।
इस प्रकार सत्त्व भावना से अभ्यस्त होने से दिन में या रात में, देव-दानव से भी नहीं डरे और जिनकल्प का निर्भयता से वहन करे । सूत्र भावना
काल का प्रमाण जानने के लिये वह ऐसा श्रुताभ्यास करे कि खुद के नाम जैसा अभ्यास हो जाय । सूत्रार्थ के परिशीलन द्वारा, वह अन्य संयमानुष्ठानों के प्रारंभकाल तथा समाप्तिकाल को जान ले । दिन और रात के समय को जान ले । कब कौन सा प्रहर और घड़ी चल रही है, वह जान ले । आवश्यक, भिक्षा, विहार........आदि का समय छाया नापे बिना जान ले ।
सूत्र भावना से चित्त की एकाग्रता, महान् निर्जरा वगैरह अनेक गुणों को वह सिद्ध करता है । 'सुयभावणाए नाणं दसणं तवसंजमं च परिणमइ'
-बृहत्कल्प० गाथा १३४४
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