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________________ जिनकल्प-स्थविरकल्प 1 [ ४९ दोनों प्रकार के जीवन परमात्मा महावीरदेव ने बताए हैं। दोनों प्रकार के जीवन से मोक्षमार्ग की आराधना हो सकती है । दोनों जीवों के बीच का अन्तर मुख्यतया एक है । जिनकल्प का साधुजीवन मात्र उत्सर्गमार्ग का अवलंबन लेता है । स्थविरकल्प का साधुजोवन उत्सर्गमार्ग और अपवादमार्ग-दोनों का अवलंबन लेता है । अर्थात् जिनकल्पी मुनि अपवाद मार्ग का अनुसरण नहीं करते । स्थविरकल्पी मुनि अनुसरण करते हैं । अपवादमार्ग का अनुसरण करनेवाले मुनि भी आराधक हैं । तात्पर्य यह कि मोक्षमार्ग की आराधना के लिए मुख्य रूप से ये दो प्रकार के ही जीवन हैं । प्रस्तुत में जिनकल्प का स्वरूप श्री बृहत्कल्पसूत्र ग्रंथ के आधार पर दिया जाता है : जिनकल्प-स्वीकार की पूर्व तैयारी जिनकल्प स्वीकार करने वाला मुनि अपनी आत्मा को इस प्रकार तैयार करे । तैयारी में पांच प्रकार की भावनाओं से आत्मा को भावित करे । (१) तपो भावना (२) सत्त्व भावना (३) सूत्र भाबना (४) एकत्व भावना (५) बल भावना तप भावना धारण किया हुआ तप जहाँ तक स्वभावभूत न हो जाय वहाँ तक उसका अभ्यास न छोड़े । , एक-एक तप वहाँ तक करे कि जिससे विहित अनुष्ठान की हानि न हो । शुद्ध प्रासुक आहार नहीं मिले तो छः महिने तक भूखा रहे, परन्तु दोषित आहार न ले । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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