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________________ जिनकल्प-स्थविरकल्प ] [ ५१ एकत्व भावना ___ संसारवास का ममत्व तो मुनि पहले ही छोड़ देता है, परन्तु साधुजीवन में आचार्यादि का ममत्व हो जाता है । अतः जिनकल्प की तैयारी करने वाला महात्मा आचार्यादि के साथ भी सस्निग्ध अवलोकन, आलाप, परस्पर गोचरीपानी का आदान-प्रदान, सूत्रार्थ के लिए प्रतिपृच्छा, हास्य, वार्तालाप वगैरह त्याग दे । आहार, उपधि और शरीर का ममत्व भी न करे । इस प्रकार एकत्व भावना द्वारा ऐसा निर्मोही बन जाय कि जिनकल्प स्वीकार करने के बाद स्वजनों का वध होता हुआ देखकर भी क्षोभ प्राप्त न करे । बल भावना ०मनोबल से स्नेहजनित राग और गुणबहुमानजनित राग, दोनों को त्याग दे । ०धृतिबल से आत्मा को सम्यग्भावित करे । इस प्रकार महान् सात्विक, धैर्यसंपन्न, औत्सुक्यरहित, निष्प्रकंपित बनकर परिषह-उपसर्ग को जीतकर वह अपनी प्रतिज्ञा को पूर्ण करता है । 'सर्वं सत्वे प्रतिष्ठितम्'-सब सिद्धि सत्व से मिलती है । इस प्रकार पांच भावनाओं से आत्मा को भावित करके जिनकल्पिक के समान बनकर गच्छ में ही रहते हुए द्विविध परिकर्म करे । १. आहार परिकर्म २. उपधि परिकर्म सात पिण्डैषणा में से पहली दो को छोड़कर बाकी की पांच पिण्डैषणा में भिक्षा ग्रहण करे । उसमें भी विविध प्रकार के अभिग्रह धारण करे । अलेपकृत आहार ग्रहण करे, अन्तप्रान्त और रूक्ष आहार ग्रहण करे । उपधिपरिकर्म में वस्त्र और पात्र की चार प्रतिमाओं में से प्रथम दो त्याग दे और अंतिम दो ग्रहण करे । 1सात पिण्डैषणाः 'असंसट्ठा संसट्ठा उद्धड़ा, अप्पलेवा, उग्गमहिआ, पग्गहिया उज्झियधम्मेति । --आचारांगसूत्रे २ श्रुतस्कंधे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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