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ज्ञानसार क्रियानय का मंतव्य है कि सिर्फ आत्मस्वरुप का ज्ञान ही चारित्र और साध्य है, ऐसा नहीं है ! जीव को आत्मा का ज्ञान होने के बाद तदनुरुप क्रिया उसके जीवन में घुल-मिल जानी चाहिए !
ज्ञानस्य फलं विरति: विरतिफलं आस्रवनिरोधः संवरफलं तपोबलम् तपसो निर्जराफलं दृष्टम् ।'
श्रमण के लिए जो चारित्र साध्य है, वह ज्ञानस्वरुप नहीं, बल्कि ज्ञान के फलस्वरूप है । ज्ञान का फल है विरतिरुप क्रिया, पाश्रवनिरोधात्मक क्रिया, तपश्चर्या की क्रिया और निर्जरा की क्रिया । यह क्रिया की प्राप्ति के फलस्वरुप चारित्र मुनि को साध्य होता है। ऐसे साध्य को सिद्ध करने के लिए कठोर पुरुषार्थ की आवश्यकता है । इस तरह पुरुषार्थ करते हुए प्रात्मतत्त्व निरावरण- कर्मरहित प्रकट होता है, तब आत्मा ज्ञाननय से साध्य बनती है ।
___“जो भी करना है आत्मा के लिए कर । हे जीव, मन-वचन और काया का विनियोग प्रात्मा में ही कर दे । तुम अपनी आत्मा को केन्द्र में रख उस के विशुद्ध प्रात्मस्वरुप को परिलक्षित कर, वारणी, विचार और व्यवहार को रख," इसी को चारित्र कहते हैं । साथ ही ज्ञाननय/ज्ञानाद्वैत को मान्य ऐसे आत्मज्ञान को घर में बसा कर विशुद्ध आत्मज्ञान के प्रकटीकरण हेतु निरन्तर पुरुषार्थ करते रहना चाहिए । यही तो दोनों नयो का उपदेश है ।
पौद्गलिक भाव के नियंत्रण को छिन्न-भिन्न करने के लिए आत्मभाव की रमणता अविरत रुप से वृद्धिंगत होती रहे, उसी रमणता के लिए ज्ञान-दर्शन और चारित्र की आराधना मुनि के लिए साध्य है।
यतः प्रवत्तिन मणौ, लभ्यते वान तत्फलम् । अतात्विकी मरिगज्ञप्ति-मरिणश्रद्धा च सा यथा ॥४||१००।। तथा यतो न शुद्धात्मस्वभावाऽऽचरणं भवेत् । फलं दोषनिवृत्तिर्वा, न तद् ज्ञानं न दर्शनम् ।।५॥१०१॥
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