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________________ मौन १७१ चारित्रमात्मचरणाद ज्ञानं वा दर्शनं मुनेः । शुद्धज्ञाननये साध्यं क्रियालाभात क्रियानये ॥३॥६६ अर्थ :- आत्मा के संबंध में चलना चारित्र है और ज्ञाननय की दृष्टि से मुनि के लिए ज्ञान और दर्शन साध्य है । जब कि क्रियानय के अनुसार ज्ञान के फलस्वरूप क्रिया के लाभ से साध्यरुप है । विवेचन :- प्रात्मा के सम्बन्ध में अनुगमन करना मतलब चारित्र ! मुनि का ध्येय.... साध्य यही चारित्र है ! इसी चारित्र का स्वरूप शुद्ध ज्ञाननय एवं क्रियानय के माध्यम से यहां तोला गया है । शुद्धज्ञान-नय (ज्ञानाद्वैत का कहना है कि 'चारित्र बोधस्वरूप है । आत्म-स्वरूप का अवबोध हो चारित्र है । उसका विश्लेषण निम्नानुसार है ! चारित्र = आत्मा में अनुगमन करना । = पौद्गलिक भावों से निवृत्त होना । = आत्म-स्वरुप में रमणता करना । = आत्मा, जो कि अनंतज्ञानरुप है, उसमें आकंठ डूब जाना। = आत्मा के ज्ञानस्वरुप में रमणता । तात्पर्य यही है कि आत्मज्ञान में स्थिरता यही चारित्र है और चारित्र का मतलब आत्म-ज्ञान में रमणता ! ज्ञान और चारित्र में अभेद है ! ज्ञाननय (ज्ञानाद्वैत) आत्मा के दो गुण मानता है : ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ! चारित्र ज्ञानोपयोगरूप और दर्शनोपयोगरुप है ! उसका अभेद है । इस व्यापार के भेद से ज्ञान त्रिरुप भी है ! जब तक विषयप्रतिभास का व्यापार होता हो तब तक ज्ञान है और जब आत्म-परिणाम का व्यापार हो तब सम्यक्त्व है ! जब आश्रव-निरोध होता है तब तत्वज्ञान में व्यापार होता है, तब वही ज्ञान और वही चारित्र ! Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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