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________________ विवक २०५ इसी तरह कम-पुद्गल रुप पाप-पुण्य का उपचय-अपचय अविवेक करता है, फिर भी उसका उपचार शद्ध आत्मा में किया जाता है । अर्थात् 'पात्मा ने पुण्य किया और आत्मा ने पाप किया ।' कर्म-जन्य भावों का कर्ता आत्मा नहीं बल्कि प्रात्मा तो स्वभाव का कर्ता है। लेकिन आत्मा और कर्म परस्पर इस तरह प्रोत-प्रोत हो गये हैं कि कर्मजन्य भावों का कर्तुत्व प्रात्मा में भासित होता है। यही हमारी अज्ञानावस्था है, जो जीव के भवभ्रमण का कारण है। जन्मादिकोऽपि नियत: परिणामो हि कर्मणाम् । न च कर्म कृतो भेद : स्यादात्मन्यविकारिणि ।।१५।। आरोप्य केवल कर्म-कृतां विकृतिमात्मनि । भ्रमन्ति भ्रष्टविज्ञाना भीमे संसारसागरे ।।१६।। उपाधिभेदज भेद वेत्यज्ञः स्फटिके यथा । तथा कर्मकृत भेद-मात्मन्येवाभिमन्यते ।।१७।। -अध्यात्मसारे-आत्मनिश्चयाधिकारे "जन्म जरा मृत्यु आदि सब कर्मों का परिणाम है । वे कर्मजन्य भाव अविकारी आत्मा के नहीं है, फिर भी अधिकारी आत्मा में कर्मजन्य विकृति को प्रारोपित करनेवाले ज्ञानभ्रष्ट जीव भववन में भटकते रहते हैं। इस तरह कर्मजन्य विकृति को अविकारी आत्मा में प्रारोपित करनेवाले लोग स्फटिक रत्न को लाल-पीला समझने वालों को तरह अज्ञानो हैं। वे इस तथ्य से सर्वथा अनभिज्ञ होते हैं कि जिस स्फटिक को वे लाल-पीला समझते हैं वह तो उसके पीछे रहे लालपीले वस्त्र के कारण दिखायी पड़ता है। उसी तरह प्रात्मा में जो जन्मादि विकृति के दर्शन होते हैं, वह कर्मजन्य है, कर्मकृत है, ना कि प्रात्मा की है, लेकिन अज्ञानदशा इस तथ्य को समझने नहीं देती, बल्कि वह तो मिथ्या आरोप करके ही रहती है। आत्मा और कर्म भले ही एक आकाशक्षेत्र में रहते हों, लेकिन कर्म के गुण आत्मा में संक्रमण नहीं कर पाते। अात्मा अपने भव्य स्वभाव के कारण सदैव शुद्ध-विशुद्ध है । जिस तरह धर्मास्तिकाय है । अर्थात धर्मास्तिकाय भी आकाशक्षेत्र में ही है, फिर भी कर्मजन्य विकृति धर्मास्तिकाय में संक्रमण नहीं कर पाती! धर्मास्तिकाय अपने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001715
Book TitleGyansara
Original Sutra AuthorYashovijay Upadhyay
AuthorBhadraguptasuri
PublisherVishvakalyan Prakashan Trust Mehsana
Publication Year
Total Pages636
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Principle
File Size11 MB
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