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शुद्ध स्वरूप में निर्बाध रहता है, उसी तरह आत्मा भी शुद्ध-विशुद्ध स्वरूप में रही हुई है ।
कर्मजन्य विकृतियों को आत्मा में आरोपित कर ही जीव रागद्वेष में सड़-गल रहा है, नारकीय यंत्रणाएँ सहु रहा है । दुःख में वह चीखता चिल्लाता है, विलाप करता है । सुख में आनंदित हो, नृत्य कर उठता है । तदुपरांत भी अपने को ज्ञानी और विवेकशील होने का मिथ्याडम्बर रचाता है । उसी तरह अन्य जीवों के प्रति भी वह इसी अज्ञान दृष्टि का अवलम्बन करता है । कर्मजन्य विकृति को आत्मा की विकृति मानता है । अपनी इसी समझ और मान्यता के आधार पर प्रायः वह आचरण करता है । फलतः उसका व्यवहार भी मलिन हो हो गया है ।
आजतक वह, कर्मजन्य विकृतियों को आत्मा में आरोपित कर निरंतर मिथ्यात्व को दृढ़ करता रहा है । लेकिन अब उसी मिथ्यात्व को नेस्तनाबूद करने के लिए भेद - ज्ञान की राह चलने की आवश्यकता है । आत्म-ज्ञान प्राप्त करने की अत्यन्त आवश्यकता है । तभी हृदय शुद्ध होगा, दृष्टि पवित्र होगी और मोक्ष मार्ग सुगम बन जाएगा । सदा-सर्वदा अपने हृदय में निश्चयनय की दृष्टि को अखंड ज्योति की तरह ज्योतिर्मय रखने की नितान्त भावश्यकता है । प्रस्तुत उपदेश को हृदयस्थ कर तदनुसार कदम उठाना जरूरी है ।
इष्टकाद्यपि हि स्वर्ण पीतोन्मतो यथेक्षते । आत्माऽभेदभ्रमस्तद्वद् देहादावविवेकिनः ॥५॥११७
अर्थः
ज्ञानसार
जिस तरह जिसने धतूरे का रस पिया हो वह ईंट-पत्थर वगैरह को सोना देखता है, ठीक उसी तरह अविवेकी जड़मति को भी शरीरादि में आत्मा का भ्रम होता है ।
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विवेचनः धतूरे का पेय मनुष्य को दृष्टि में विपर्यास पैदा करता है । जो भी वह देखता है, उसे सर्वत्र सोना ही सोना दिखता है । अविद्या अविवेक का प्रभाव धतूरे के पेय से कम नहीं होता । शरीर इन्द्रिय.... मन.... आदि में वह आत्मा का अभेद मानता है... और उसे ही आत्मा समझ लेता है ।
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