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ज्ञानसार
विवेचन : ज्ञानसार !
किसी प्रकार का कोई विकार नहीं, ना हो पीडा है....। ऐसे अद्भत ज्ञानसार की जिसे प्राप्ति हो गयी है, उसे भला, पर-पदार्थ की आशाअपेक्षा क्या संभव है ? विकारी और क्लेशयुक्त पर-पदार्थों की इच्छा होना क्या संभव है ?
ज्ञान के सारभूत चारित्र में निविकार अवस्था है, साथ ही निराबाध भी । फलतः ऐसे महात्मा कर्म-बंधनों से परे होते हैं। क्योंकि कर्म-बंधन का मूल है विकार । पर-पदार्थों की चाह से विकारों का जन्म होता है ।
चारित्रवंत आत्मा को कर्म-बंधन नहीं होता है, और इसी का नाम मोक्ष है । पूर्वकर्म का उदय भले ही हो, लेकिन नये कर्म-बंधन नहीं होते । कर्मोदय के समय ज्ञानसार के कारण नये कर्म-बंधन की संभावना नहीं होती ! नये कर्म-बंधन न हो, यही मोक्ष है ।
पर-पदार्थों की स्पृहा के कारण उत्पन्न विकार और विकारों से पैदा होती पीडा, जिस महात्मा को स्पर्श तक न करें, उन्हें इसी भव में मोक्षसुख का अनुभव होता है, अर्थात् पराशाओं से निवृत्त यह मोक्षप्राप्ति के लिए महत्त्वपूर्ण शर्त बन जाती है । और शिवाय आत्मा, सभी पर है !
"अन्योऽहं स्वजनात परिजनाद् विभवात शरीरकाच्चेति ! यस्य नियता मतिरियं न बाधते तस्य शोककलिः ।।"
इस अन्यत्व भावना को दृढ करनेवाला महात्मा सदैव निविकार, निराबाध चारित्र का पालन करता हुआ मोक्ष-गति पाता है।
चित्तमाद्रीकृत ज्ञानसारसारस्वतोमिभिः ! __ नाप्नोत्ति तीव्रमोहाग्निप्लोषशोषकदर्थनाम् ॥३॥ अर्थ : ज्ञानसाररूप सरस्वती की तरंगावलि से कोमल बना मन, प्रखर मोह
रूपी अग्नि के दाह से, शोष की पीड़ा से पीड़ित नहीं होता । विवेचन : ज्ञानसार की पवित्र-पावन सरयु सरस्वती !
सरस्वती को पवित्र धारा में निष्प्राण हड्डियाँ और राख विसर्जन करने से सद्गति नहीं मिलती है, स्वर्ग-प्राप्ति नहीं होती है ! उस के
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