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उपसंहार
५०१ निर्मल पवित्र प्रवाह में हमारे मन को विसर्जित करना होगा ! अतः 'ज्ञानसार' की पतीत पावनी सरस्वती में बार-बार अपने मन को डूबो कर उसे कोमल और कमनीय होने दो ! सरस्वती के पावन स्पर्श से उसे आर्द्र और स्निग्ध होने दो !
फिर भले ही मोह-दावानल संपूर्ण शक्ति से प्रज्वलित हो और उसकी लपटें मन को स्पर्श करें, उस को कोई पीडा नहीं, ना ही किसी प्रकार की वेदना । अरे, पानी से भीगे कपड़ों को कभी आग जला सकी है ? तब फिर सरस्वती की तरंगों से प्लावित मन को मोहदावानल भला कैसे दग्ध कर सकता है ? ___तभी तो कहा है 'ज्ञानसार' ग्रंथ पवित्र सरस्वती है । 'ज्ञानसार' की वाणी-तरंगों से मन को सदैव तर-बतर होने दो ! मोह-वासनाओं का जहालामुखी उस को जला नहीं सकेगा।
मोह-दावानल से बचने के लिए पूज्य उपाध्यायजी महाराज ने निरंतर 'ज्ञानसार' के रसामृत का आस्वाद लेने का उपदेश दिया है। क्यों कि समस्त दुःख, दर्द वेदना, और व्याधिओं का मूल मोह है। मोह के प्रभाव से मन मुक्त होते ही किसी प्रकार की अशांति, वेदना और यातनाएँ नहीं रहेंगी।
अचिन्त्या काऽपि साधनां ज्ञानसारगरिष्ठता ।
गतिर्ययोर्ध्वमेव स्याद् अधःपातः कदाऽपि न ॥४॥ अर्थ : ज्ञानसार का भार मुनिराज के लिए कुछ समझ में नहीं आये वैसा है।
उस से उसकी उर्ध्वगति ही संभव है, अधोगति नहीं । विवेचन : 'ज्ञानसार' अवश्य भार है ! जो समझ में न आ सके ऐसा कल्पनातीत भार है ! इसे वहन करनेवाला भारी बनता है ! साथ ही 'ज्ञानसार' के बोझ से बोभिल बना महामुनि जब अधोगति के बजाय उर्ध्वगति करता है तब हर किसी के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहता !
___ 'भारी मनुष्य उर्ध्वगामी बन सकता है !!' ज्ञानसार का भार इस तरह अचिन्त्य है, समझ में न आए ऐसा है ! उपाध्यायजी महाराज ज्ञानसार के प्रभाव की व्याख्या इस तरह सरल भाषा में कैसी सुगमता से करते हैं !
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