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उपसंहार
स्पष्टं निष्टङ्कितं तत्वमष्टकैः प्रतिपन्नवान् । मुनिर्महौदयं ज्ञानसारं समधिगच्छति ॥१॥
अर्थ : अष्टकों से स्पष्ट और सुनिश्चित ऐसे तत्त्व को प्राप्त मुनि महान् अभ्युदय करनेवाला विशुद्ध चारित्र प्राप्त करता है ।
विवेचन : इस ग्रन्थ में बताये गये ३२ तत्त्वों से युक्त मुनि, ऐसा विशुद्ध एवं पवित्र चारित्र प्राप्त करते हैं कि जिस से उनका महान् अभ्युदय होता है । क्योंकि ज्ञान का सार ही चारित्र है !
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'ज्ञानस्य फलं विरति : ' भगवान उमास्वातिजी का यह सारभूत वचन है । पूज्य उपाध्यायजी महाराज भी कुछ इसी तरह फरमाते हैं : 'ज्ञानस्य सार : चारित्रम्' ज्ञान का सार चारित्र है ! आगे चलकर वह ज्ञान का सार मुक्ति बताते हैं ! अर्थात् ज्ञान का सार चारित्र और चारित्र का सार मुक्ति है !
सामाइअमाइअं सुअनाणं जाव बिंदुसाराओ । तस्स वि सारो चरणं सारो चरणस्स निव्वाणं 11
'सामयिक से लेकर चौदहवे पूर्ण 'बिंदुसार' तक श्रुतज्ञान है । और उसका सार चारित्र है । जब कि चारित्र का सार परिनिर्वाण है ।'
३२ अष्टकों को प्राप्त करने का अर्थ केवल उन का सरसरी निगाह से पठन करना नहीं है, बल्कि इन अष्टकों में वर्णित विषयों को आत्मसात् करना है । मन वचन काया को उन के रंग में रंग देना और ज्ञान के सार स्वरूप चारित्र को पाना यानी चारित्रमय बन जाना है ।
यदि निर्वाण के लक्ष्य को लेकर ३२ विषयों का चिंतन-मनन किया जाय तो आत्मा की अपूर्व उन्नति हो सकती है । कर्म - बंधन से आत्मा मुक्ति पा सकता है । आत्म-सुख का अनुभव करने लगता है । और इसी लक्ष्य को निश्चित कर यशोविजयजी महाराज ने उपर्युक्त ३२ विषयों का अनूठा संकलन कर, तत्त्वनिर्णय किया है ।
निर्विकारं निराबाधं ज्ञानसारमुयेयुषाम् ! विनिवृत्तपराशानां मोक्षोऽत्रैव महात्मनाम् ||२||
अर्थ : विकाररहित और पीडारहित ज्ञानसार को प्राप्त करनेवाला और परायी आशा से निवृत्त हुए आत्माओं की मुक्ति इसी भव में है ।
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