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ज्ञानसार
होती है, मानो या न मानो वह अल्पजीवी ही है, अल्पावधि के लिये है। क्योंकि समय के साथ प्रेयसी के स्वभाव में भी परिवर्तन की संभावना है और तब उसके हृदय-भेदी शब्द-बाणों से तुम्हारा मन छिन्न-भिन्न होते देर नहीं लगती । ठीक वैसे ही भक्तिशून्य बने भक्तों को विषैली बातें जब तुम्हारा अपवाद फैलाती हैं, तब कहां जाती है वह तृप्ति ?
तब क्या मादक सौन्दर्य का दर्शन कर तप्त मिलती है ? नहीं, यह भी असंभव है । भले ही स्वर्गलोक की अनुपम सुन्दरी उर्वशी-सा मादक रूप क्यों न हो ? एक-सा रूप कभी किसी का टिका है ? एक ही वस्तु या व्यास को बार-बार देखने से मन कभी भरा है ? मतलब यह कि एक ही वस्तु निरन्तर अानंद नहीं देती. सुख का अनुभव नहीं कराती । ज्ञानीजनों को इसकी सही परख होती है । ज्ञानदृष्टि, शरीर के सौन्दर्य के नीचे रहे हड्डी-मांस के अस्थि-पिंजर को भली-भांति देखती है । उसकी बीभत्सना को जानती है । अतः रूप-रंग उन्हें आकर्षित नहीं कर सकते । बल्कि उन्हें तो आत्म-देवता के मंदिर में प्रतिष्ठित परमात्मा के कमनीय बिंब की सुन्दरता इस कदर प्रफल्लित कर देती है कि निनिमेष नेत्रों से उसकी ओर देखते नहीं अघाते । उसके दर्शन में लयलीन हो जाते हैं, साथ ही इसमें ही परम-तृप्ति का अनुभव करते हैं ।
विश्व में ऐसा कौन सा रस है, जिसका वर्षों तक कई जन्म में उपभोग करने के पश्चात् भी मानव को तृप्ति हुई है ? तुमने जन्म से लेकर आज तक क्या कम रसों का अनुभव किया है ? तृप्त हो गये ? मिल गयी तृप्ति ? नहीं, कदापि नहीं । और मिली भी तो क्षणिक ! पल दो पल के लिये, घंटे दो घंटे के लिये । इसी तरह दिन, मास और एकाध वर्ष के लिये । बाद में वही अतृप्ति !
अब तो तुम्हारे मन में किसी विशेष फल की सवास और विशेष प्रकार के इत्र को सुगन्ध की चाह नहीं रहो न ? तृप्ति हो गयी ? अब तो उस सुवास प्रोर सुगन्ध के लिये कभो प्राकुल -व्याकुल, अधीर नहीं बनोगे न ? जब तक स्वगुण की सुवास के भ्रमर नहीं बनेंगे, तब तक जड़ पदार्थों की परिवर्तनशील सुवास के लिये इस संसार में निद्देश्यरु भटकते हो रहेंगे । यह सत्य और स्पष्ट है कि स्वगुणों में
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