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तृप्ति
११७ (ज्ञान-दर्शन-चारित्र) तल्लीन/तन्मय बनते ही भौतिक पदार्थों की मादक सौरभ भी तुम्हारे लिये दुर्गन्ध बन जाएगी ।
कोमल, कमनीय और मोहक काया का स्पर्श भले तुम आजीवन करते रहो. उसमें प्रोत-प्रोत होकर स्वर्गीय सुख निरन्तर लुटते रहो, लेकिन यह शाश्वत सत्य है कि उससे तप्ति मिलना असंभव है | “अब बस हो गया । विषय-भोग बहुत कर लिये, अब तो तृप्ति मिल गयी।" ऐसे उद्गार भी तुम्हारे मुख से प्रकट नहीं होंगे।
जहां स्वगुण में सत्...चिद्....प्रानन्द की मस्ती छा गयी, वहां परम ब्रह्म के शब्द, परम ब्रह्म का सौन्दर्य, परम ब्रह्म का रस, परम ब्रह्म की सुगन्ध और परम ब्रह्म के स्पर्श की अनोखी, अविनाशी, अलौकिक सृष्टि में पहुँच गये, तब भला जड़ पदार्थों के शब्द, रूप, रस गन्ध, स्पर्शादि विषयों की क्षणिक तप्ति का प्रयोजन ही क्या है ?
नंदनवन में पहुँचने के बाद पृथ्वी के बगीचे की क्या गरज है ? किन्नरियों की मादक सुरावलि की तुलना में गर्दभ-राग की क्या आवश्यकता ? अद्वितीय रूप-यौवना अप्सराओं की कमनीयता के मुकाबले भीलनियों की सुन्दरता किस काम की ? कल्पवृक्ष के मधुर फल चखने के बाद नीम के रस का क्या प्रयोजन ? देवांगनाओं के मादक स्पर्श-सुख की विसात में, हड्डी-माँस के बने मानव की संगति का क्या मोह ? ज्ञानी वही है, जिसके मन में शब्दादि विषयों की अपेक्षा न रही हो, आकर्षण खत्म हो गया हो, संग-व्यासंग की वत्ति नष्टप्रायः हो गयी हो । क्योंकि ज्ञानो बनने के लिये भी यही उपाय सर्वश्रेष्ठ है।
या शान्तकरसास्वादाद् भवेत् तृप्तिरतीन्द्रिया।
सा न जिह्वेन्द्रियद्वारा षडरसास्वादनादपि ॥३॥७५ ॥ अथ : शान्त रस के अद्वितीय अनुभव से (आत्मा को' जो अतीन्द्रीय __ अगोचर तृप्ति होती है, वह जिह्वेन्द्रिय के माध्यम से षडरस भोजन
से भी नहीं होती। विवेचन : ना ही इष्ट-वियोग का दुःख, ना ही इष्ट-संयोग का सुख ! न कोई चिन्ता-सन्ताप, ना ही किसी पुद्गल-विशेष के प्रति राग-द्वेष । न कोई इच्छा-अपेक्षाएँ, ना ही कोई अभिलाषा-महत्त्वाकांक्षाएँ ! जगत के सभी भावों के प्रति समदृष्टि, वही शांतरस कहलाता है ।
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